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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 16
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - याजुषी गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    शयो॑ ह॒त इ॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शय॑: । ह॒त: । इ॒व ॥१३१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शयो हत इव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शय: । हत: । इव ॥१३१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार हे ब्रह्मनिष्ठ [अश्वत्थ]! तू (अरत् उपरम) = [ऋto kill]-हिंसा से उपरत हो। किसी भी प्राणी का तू हिंसन करनेवाला न बन। २. (हत: इव) = जिसकी सब वासनाएँ मर गई हैं, ऐसा बना हुआ तू (शय:) = [शी अच्] इस संसार में निवास करनेवाला हो [शेते इति शयः] ३. ऐसे वासनाशुन्य व्यक्ति को (पूरुषः) = वह परम पुरुष प्रभु (व्याप) = विशेष रूप से प्राप्त होता है।

    भावार्थ - हम हिंसा से निवृत्त हों। वासनाओं को मारकर संसार में पवित्र जीवनवाले बनें। तभी हमें उस परमपुरुष की प्राप्ति होगी।

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