अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 9
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
वनि॑ष्ठा॒ नाव॑ गृ॒ह्यन्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवनि॑ष्ठा॒: ॥ न । अव॑ । गृ॒ह्यन्ति॑ ॥१३१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
वनिष्ठा नाव गृह्यन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठवनिष्ठा: ॥ न । अव । गृह्यन्ति ॥१३१.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 9
विषय - संविभाग की वृत्ति
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का वर्तक प्रार्थना करता है कि (वनेनती) = संभजन में झुकाववाली [वन संभक्ती] बनी शक्तियों का विकास करनेवाली चित्तवृत्ति (आ अय) = मुझे सर्वथा प्राप्त हो। वस्तुत: जब हम संभजन की वृत्तिवाले होते है-सब-कुछ स्वयं ही नहीं खा लेते तब इस समय हमारी शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। वस्तुतः उत्तम कार्यों में वर्तनेवाला व्यक्ति सदा इस संभजन की वृत्ति को अपनाता है। २. ये (वनिष्ठा:) = अधिक-से-अधिक संविभाग की वृत्तिवाले लोग (न अवगृह्मान्ति) = परस्पर विरोध की वृत्तिवाले नहीं होते। एक-दूसरे का ये संग्रह करनेवाले ही होते हैं।
भावार्थ - संविभाग की वृत्ति हमारी शक्तियों का विकास करती है। यह हमें परस्पर के संघर्ष से दूर रखकर उन्नत करती है।
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