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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 19
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    अत्य॑र्ध॒र्च प॑र॒स्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्य॑र्ध॒र्च । प॑रस्व॒त॑: ॥१३१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यर्धर्च परस्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्यर्धर्च । परस्वत: ॥१३१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 19

    पदार्थ -
    १. (अ-दूह-मित्याम्) = [अ-दुहिर् Hurt अर्दने, मिति ज्ञान]-हिंसा न करनेवाला ज्ञान होने पर ही मनुष्य (पूषकम्) = उस सर्वपोषक प्रभु को पाता है। प्रभु पूषा हैं। साधक भी पूषा-न कि हिंसक बनकर ही प्रभु को प्राप्त करता है। २. [अति, ऋधू वृद्धौ, ऋच् स्तुतौ] (अत्यर्थर्च) = हे अतिशयेन प्रवद्ध स्तुतिवाले जीव! तू ही उस (परस्वत:) = [पृ पालनपुरणयो:, अस्। परस्+मत्] पालन व पूरण के कौवाले प्रभु को पानेवाला होता है। प्रभु का स्तवन करता हुआ भी 'परस्वान्'-पालनात्मक व पूरणात्मक कौवाला होता है। ३. इस (हस्तिन:) = प्रशस्त हाथोंवाले पुरुष के (दौव) = [दो:-भुजा] दोनों ही हाथ (दृती) = [दु विदारणे]-शत्रुओं का विदारण करनेवाले होते हैं। वस्तुत: प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न बनकर यह शत्रुओं का विदारण करता हुआ उत्तमता से पालन करनेवाला होता है।

    भावार्थ - हमारा ज्ञान अहिंसक होगा तो ही हम पोषक प्रभु को प्राप्त करेंगे। प्रभु का स्तवन करनेवाला अवश्य पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों को करता है। इसके दोनों हाथ शत्रुओं का विदारण करनेवाले होते हैं।

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