अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 2
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
तस्य॑ अनु॒ निभ॑ञ्जनम् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । अनु॒ । निभ॑ञ्जनम् ॥१३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य अनु निभञ्जनम् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । अनु । निभञ्जनम् ॥१३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 2
विषय - मन्दन व भञ्जन
पदार्थ -
१. गतमन्त्रों में वर्णित धन के प्रकरण में ही कहते हैं कि एक [श्वा-] प्रवृद्ध ऐश्वर्यवाले व्यक्ति के (आ अमिनोन्) = समन्तात् धन का प्रक्षेपण हुआ है [मि प्रक्षेपणे]-मेरे चारों ओर धन ही धन है (इति) = यह सोचकर (भद्यते) = सुखी होता है-आनन्द का अनुभव करता है। अपने को धन में लोटता हुआ [rolling in the wealth] देखकर प्रसन्न होता है। २. परन्तु यह प्रसन्नता स्थायी नहीं होती। यह व्यक्ति धन के मद में विषयों में फंस जाता है और (अनु) = इस भोगप्रवणता के कुछ बाद (तस्य अनु निभञ्जनम्) = उस भोगासक्त धनी पुरुष का भजन [आमर्दन-विनाश] हो जाता है।
भावार्थ - जो व्यक्ति धनमदमत्त हुआ-हुआ भोगासक्त हो जाता है, वह थोड़े दिनों के विलास के बाद शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है।
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