अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 10
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒दं मह्यं॒ मदू॒रिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । मह्य॒म् । मदू॒: । इति॑ ॥१३१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं मह्यं मदूरिति ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । मह्यम् । मदू: । इति ॥१३१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 10
विषय - वृक्ष
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का बनिष्ठ कहता है कि (इदम्) = यह संविभजन-सबके साथ बाँटकर खाना (मह्यम्) = मेरे लिए (मदूः इति) = आनन्द देनेवाला है। इस संविभाग में सबके साथ मिलकर खाने में मैं आनन्द का अनुभव करता हूँ। २. (ते) = वे वनिष्ठ (वृक्षा:) = [प्रश्चू छेदने] वासनाओं के झाड़ झंकाड़ों को काटनेवाले होते हैं। सब वासनाओं को छिन्न करके पवित्र जीवनवाले होते हैं। (सह तिष्ठति) = प्रभु इनके साथ निवास करते हैं। प्रभु को वही प्रिय होता है जो सबके साथ बाँटकर खानेवाला होता है।
भावार्थ - संविभाग में हम आनन्द का अनुभव करें। यह संविभाग ही हमारी वासनाओं को विनष्ट करेगा। इन वनिष्ठों को ही-संभक्ताओं को ही प्रभु मिलते हैं।
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