अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 3
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
वरु॑णो॒ याति॒ वस्व॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठवरू॑ण॒: । याति॒ । वस्व॑भि: ॥१३१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणो याति वस्वभिः ॥
स्वर रहित पद पाठवरूण: । याति । वस्वभि: ॥१३१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 3
विषय - भारती+शवः
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में धनमदमत्त भोगासक्त पुरुष के विनाश का उल्लेख हुआ है। इसके विपरीत (वरुण:) = व्यसनों व ईर्ष्या-द्वेष से अपना निवारण करनेवाला वरुण (वस्वभिः) = सदा निवास के लिए उत्तम वसुओं के साथ (याति) = गतिवाला होता है। इसके धन इसके विनाश का कारण न होकर इसके उत्तम निवास का साधन बनते हैं। २. (वा) = निश्चय से (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त, अर्थात् आजीवन यह (भारती) = सरस्वती-विद्या की अधिष्ठात्री देवता तथा (शव:) = बल का अधिष्ठान बनता है। इसके जीवन में ज्ञान व शक्ति का समन्वय होता है इसके ब्रह्म व क्षत्र दोनों श्रीसम्पन्न होते हैं।
भावार्थ - विषयासक्ति के न होने पर धन 'ब्रह्म व क्षत्र' के विकास का साधन बनता है।
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