अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 17
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - दैवी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
व्याप॒ पूरु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठव्याप॒ । पूरु॑ष: ॥१३१.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याप पूरुषः ॥
स्वर रहित पद पाठव्याप । पूरुष: ॥१३१.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 17
विषय - अहिंसा-वासनाशून्यता
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार हे ब्रह्मनिष्ठ [अश्वत्थ]! तू (अरत् उपरम) = [ऋto kill]-हिंसा से उपरत हो। किसी भी प्राणी का तू हिंसन करनेवाला न बन। २. (हत: इव) = जिसकी सब वासनाएँ मर गई हैं, ऐसा बना हुआ तू (शय:) = [शी अच्] इस संसार में निवास करनेवाला हो [शेते इति शयः] ३. ऐसे वासनाशुन्य व्यक्ति को (पूरुषः) = वह परम पुरुष प्रभु (व्याप) = विशेष रूप से प्राप्त होता है।
भावार्थ - हम हिंसा से निवृत्त हों। वासनाओं को मारकर संसार में पवित्र जीवनवाले बनें। तभी हमें उस परमपुरुष की प्राप्ति होगी।
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