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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 5
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    श॒तमा॒श्वा हि॑र॒ण्ययाः॑। श॒तं र॒थ्या हि॑र॒ण्ययाः॑। श॒तं कु॒था हि॑र॒ण्ययाः॑। श॒तं नि॒ष्का हि॑र॒ण्ययाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । आ॒श्वा: । हि॑र॒ण्यया॑: ॥ श॒तम् । र॒थ्या । हि॑र॒ण्यया॑: ॥ श॒तम् । कु॒था: । हि॑र॒ण्यया॑: ॥ श॒तम् । नि॒ष्का: । हि॑र॒ण्यया॑: ॥१३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतमाश्वा हिरण्ययाः। शतं रथ्या हिरण्ययाः। शतं कुथा हिरण्ययाः। शतं निष्का हिरण्ययाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम् । आश्वा: । हिरण्यया: ॥ शतम् । रथ्या । हिरण्यया: ॥ शतम् । कुथा: । हिरण्यया: ॥ शतम् । निष्का: । हिरण्यया: ॥१३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित वासना का निवारण करनेवाले वरुण के (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त (हिरण्ययाः) = ज्योतिर्मय [हिरण्यं वै ज्योतिः] व हितरमणीय (अश्वाः) = इन्द्रियरूप अश्व होते हैं। (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त ये इन्द्रियाश्व (हिरण्ययाः) = वीर्यवान् [हिरण्यं वै वीर्यम्] (रथ्या:) = शरीर-रथ का उत्तमता से वहन करनेवाले होते हैं। २. (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त (हिरण्ययाः) = ज्योतिर्मय (कुथाः) = [कुन्थ दीसौ]-ज्ञानदीतियाँ होती है अथवा [कुत्थति हिनस्ति अशोभाम्] शतवर्षपर्यन्त इसका जीवन शोभामय बना रहता है। (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त यह (हिरण्ययाः) = ज्योतिर्मय (निष्का:) = ज्ञानरूप कण्ठाभरणोंवाला होता है।

    भावार्थ - धन का भोगों में व्यय न करके, सद्व्यय करने पर इन्द्रियों प्रकाशमय बनी रहती हैं। ये इन्द्रियों शरीर-रथ का उत्तमता से वहन करती हैं। सब अशोभाओं का निराकरण होकर शोभा की वृद्धि होती है और विविध विज्ञान इसके कण्ठाभारण बनते हैं।

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