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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 7
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    श॒फेन॑ इ॒व ओ॑हते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒फेन॑ । इ॒व । ओ॑हते ॥१३१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शफेन इव ओहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शफेन । इव । ओहते ॥१३१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित वरुण को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अ-हल-अविलेखनीय वासनाओं से अविदारणीय! (कुश) = [श्यति कु-बुराई] बुराई को विनष्ट करनेवाले! (वर्तक) = सदा धर्म-कार्यों में वर्तनेवाले वरुण! धन के कारण वासनाओं में न फंसनेवाला यह व्यक्ति (आ ऊहति) = सब बुराइयों को [push, remove] दूर करता है। इसप्रकार दूर करता है (इव) = जैसेकि (शफेन) = खुर से एक गौ शत्रु को आहत करती है। खुर के प्रहार से गौ जैसे शत्रुओं को दूर करती है, इसी प्रकार वह वरुण धर्मकायों में वर्तता हुआ सब बुराइयों को दूर रखता है।

    भावार्थ - हम अपने जीवनों में वासनाओं से विलेखित-अवदीर्ण हों। बुराई का अन्त करनेवाले हों। सदा धर्म-कार्यों में वर्ते और इसप्रकार जीवन से सब बुराइयों को दूर रक्खें।

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