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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 10
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्। युष्माँ॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवा॑: । दद॒तु । आसु॑र॒म् । तत् । व॑: । अस्तु॒ । सुचे॑तनम् ॥ युष्मा॑न् । अस्तु॒ । दिवे॑दिवे । प्र॒ति । एव॑ । गृभायत ॥१३५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा ददत्वासुरं तद्वो अस्तु सुचेतनम्। युष्माँ अस्तु दिवेदिवे प्रत्येव गृभायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । ददतु । आसुरम् । तत् । व: । अस्तु । सुचेतनम् ॥ युष्मान् । अस्तु । दिवेदिवे । प्रति । एव । गृभायत ॥१३५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव' इन उपनिषद् वाक्यों के अनुसार माता, पिता व आचार्य' देव हैं। ये (देवा:) = माता, पिता व आचार्यरूप देव (आसुरम्) = [Divine, spiritual]-दिव्य बल (ददतु)-दें। ये तुम्हारे लिए दिव्य बल को प्राप्त करानेवाले हों। (तत्) = वह दिव्य बल (व:) = तुम्हारे लिए (सुचेतनम् अस्तु) = उत्तम चेतना व ज्ञान देनेवाला हो। २. यह उत्तम चेतना का साधनभूत दिव्य बल (दिवेदिवे) = दिन-प्रति-दिन (युष्मान् अस्तु) = तुम्हें प्रास हो, तुम प्रतिगृभायत (एव) = इसे प्रतिदिन ग्रहण करो ही।

    भावार्थ - हम उत्तम माता, पिता व आचार्य को प्राप्त करके दिव्य बल व ज्ञान को प्राप्त करें। यह दिव्य बल व ज्ञान हमें सदा प्राप्त हो।

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