अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 12
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
त्वमि॑न्द्र क॒पोता॑य च्छिन्नप॒क्षाय॒ वञ्च॑ते। श्यामा॑कं प॒क्वं पीलु॑ च॒ वार॑स्मा॒ अकृ॑णोर्ब॒हुः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॑न्द्र । क॒पोता॑य । छिन्नप॒क्षाय॒ । वञ्च॑ते ॥ श्यामा॑कम् । प॒क्वम् । पीलु॑ । च॒ । वा: । अ॑स्मै॒ । अकृ॑णो: । ब॒हु: ॥१३५.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र कपोताय च्छिन्नपक्षाय वञ्चते। श्यामाकं पक्वं पीलु च वारस्मा अकृणोर्बहुः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । कपोताय । छिन्नपक्षाय । वञ्चते ॥ श्यामाकम् । पक्वम् । पीलु । च । वा: । अस्मै । अकृणो: । बहु: ॥१३५.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 12
विषय - परिव्राजक के लिए भिक्षा
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (त्वम्) = तू (च्छिन्नपक्षाय) = [पक्ष परिग्रहे] परिग्रह को जिसने काट डाला है-जो अब परिवार के बन्धनों से ऊपर उठ गया है (अस्मै) = इस (वञ्चते) = चारों दिशाओं में भ्रमण करनेवाले (कपोताय) = आनन्द के पोत [बेड़े] के समान प्रसन्न संन्यस्त पुरुष के लिए (श्यामाकम्) = धान्यविशेष को (पक्वम्) = जिसको ठीक प्रकार से पकाया गया है (च) = तथा (पील) = [पीलु गुडफल: संसी] सुपच, उत्तम फल को तथा (वा:) = जल को (बहु:) = बहुत बार (अकृणो:) = करता है। २. गृहस्थ के लिए उचित है कि द्वार पर आये संन्यस्त को आदर से भिक्षा प्राप्त कराए। भिक्षा में दिया गया खान-पान स्वास्थ्य के लिए ठीक हो। संन्यासी भी सर्वबन्धनमुक्त-सर्वत्र आनन्द का सन्देश प्राप्त कराता हुआ परिव्राजक ही है।
भावार्थ - सद्गृहस्थ द्वार पर उपस्थित परिव्राजक के लिए स्वास्थ्य वर्धक भिक्षान्न को प्राप्त कराएँ।
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