अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्। उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठको॒श॒बिले॑ । रजनि॒ । ग्रन्थे॑: । धा॒नम् । उ॒पानहि॑ । पा॒दम् ॥ उत्त॑मा॒म् । जनि॑माम् । ज॒न्या । अनुत्त॑मा॒म् । जनी॒न् । वर्त्म॑न् । यात् ॥१३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कोशबिले रजनि ग्रन्थेर्धानमुपानहि पादम्। उत्तमां जनिमां जन्यानुत्तमां जनीन्वर्त्मन्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठकोशबिले । रजनि । ग्रन्थे: । धानम् । उपानहि । पादम् ॥ उत्तमाम् । जनिमाम् । जन्या । अनुत्तमाम् । जनीन् । वर्त्मन् । यात् ॥१३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
विषय - गृहस्थ से, वानप्रस्थ होकर संन्यास की ओर
पदार्थ -
१. 'प्रभु-चरणों में स्थित होनेवाला यह व्यक्ति किस प्रकार चलता है?' इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इसके जीवन में पहली बात तो यह होती है कि (कोशबिले) = खजाने के द्वार पर (रजनि ग्रन्थे:) = [रजनि red lac] लाख की ग्रन्थि का (धानम्) = स्थापन होता है, अर्थात् अब यह कोश को बढ़ाना बन्द कर देता है। धन की वृद्धि हो तो इसके जीवन का उद्देश्य नहीं। जीवन के लिए आवश्यक धन के होने पर धन को ही बढ़ाने में लगे रहना समझदारी नहीं। २. अब यह (उपानहि पादम्) = जूते में पाँव को रखता है, अर्थात् गृहस्थ से ऊपर उठकर वानप्रस्थ बनने के लिए घर से प्रस्थान के लिए तैयार हो जाता है। ३. (उत्तमां जनिमां जन्या) = उत्तम सन्ततियों को जन्म देकर [जनयित्वा] अब यह (अनुत्तमाम्) = सर्वोत्तम (जनीन्) = प्रादुर्भावों को शक्तिविकासों को लक्ष्य करके [जनीन्-जनिम्] (वर्त्मन् यात्) = मार्ग पर चलता है। अब यह ब्रह्म प्राति के मार्ग पर ही चलता है। यही मार्ग है जिसमें उसे सर्वोत्तम शक्तियों की प्राप्ति होती है।
भावार्थ - हम जीवन में धन की एक सीमा का निर्धारण करें-अन्यथा आजीवन इसे कमाने में ही उलझे रहेंगे। गृहस्थ से ऊपर उठकर वानप्रस्थ बनने को तैयार हों। उत्तम सन्तानों को जन्म देने के बाद अब सर्वोत्तम शक्तियों के विकास के लिए तैयारी करें।
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