अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 13
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑। इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒म्ऽग॒र: । वा॑वदीति । त्रे॒धा । ब॒द्ध: । व॑र॒त्रया॑ ॥ इ॑राम् । अह॒ । प्रशं॑स॒ति । अनि॑रा॒म् । अप॑ । से॒ध॒ति॒ ॥१३५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरंगरो वावदीति त्रेधा बद्धो वरत्रया। इरामह प्रशंसत्यनिरामप सेधति ॥
स्वर रहित पद पाठअरम्ऽगर: । वावदीति । त्रेधा । बद्ध: । वरत्रया ॥ इराम् । अह । प्रशंसति । अनिराम् । अप । सेधति ॥१३५.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 13
विषय - त्रिदण्डी परिव्राजक का ज्ञानोपदेश
पदार्थ -
१. (अरंगरः) = खूब ही ज्ञानोपदेश करनेवाला [अरं गृणाति] यह परिव्राजक (वावदीति) = लोगों के लिए ज्ञान का उपदेश करता है। यह स्वयं (वरत्रया) = व्रतबन्धनरूप रज्जु से (त्रेधा बद्धः) = तीन प्रकार से बँधा होता है-यह वाणी, मन व शरीर' तीनों में संयत होता है 'वाग्दण्डोऽथ मनोदण्ड कायदण्डस्तथैव च । इस संन्यस्त के मुख से कोई अपशब्द उच्चारित नहीं होता, किसी के प्रति मन में द्वेष नहीं होता, इसकी सब शारीरिक क्रियाएँ बड़ी संयत होती हैं तभी तो इसके ज्ञान के उपदेश का प्रभाव होगा। ४. यह (अह) = निश्चय से (इराम्) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता सरस्वती का (प्रशंसति) = शंसन करता है। लोगों को ज्ञान की रुचिवाला बनने की प्रेरणा देता है। (अनिराम्) = जो ज्ञान के प्रतिकूल है उसका (अपसेधति) = वर्जन करता है। स्वयं ज्ञान के प्रतिकूल बातों से दूर रहता हुआ लोगों को भी वैसा बनने के लिए कहता है।
भावार्थ - 'वाणी, मन व शरीर' को व्रतबन्धनों से बाँधकर यह त्रिदण्डी लोगों को खूब ही जान का उपदेश करता है। ज्ञान के प्रतिकूल प्रत्येक भाव से दूर रहता है।
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