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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    आदि॑त्या ह जरित॒रङ्गि॑रोभ्यो॒ दक्षि॑णाम॒नय॑न्। तां ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यं॒स्तामु ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आदि॑त्या: । ह । जरित॒: । अङ्गिर:ऽभ्य॒: । दक्षि॑णाम् । अनय॑न् ॥ ताम् । ह॑ । जरित॒: । प्रति॑ । आ॑य॒न् ॥ ताम् । ऊं॒ इति॑ । ह॑ । जरित॒: । प्रति॑ । आ॑यन् ॥१३५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्या ह जरितरङ्गिरोभ्यो दक्षिणामनयन्। तां ह जरितः प्रत्यायंस्तामु ह जरितः प्रत्यायन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदित्या: । ह । जरित: । अङ्गिर:ऽभ्य: । दक्षिणाम् । अनयन् ॥ ताम् । ह । जरित: । प्रति । आयन् ॥ ताम् । ऊं इति । ह । जरित: । प्रति । आयन् ॥१३५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. हे (जरित:) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (आदित्या:) = विद्यादि गुणों का आदान करनेवाले पुरुष (ह) = निश्चय से (अंगिरोभ्यः) = यज्ञों के रक्षक अंगिरसों [विद्वानों] के लिए (दक्षिणाम) = दान को (अनयन्) = प्राप्त कराते हैं। गुणों का आदान करनेवाले सद्गृहस्थ स्वयं यज्ञशील होते हुए यज्ञों के रक्षक ज्ञानी पुरुषों के लिए भी धनादि के दान द्वारा यज्ञों में सहायक होते हैं। २. हे (जरितः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (ताम्) = उस दक्षिणा को (ह) = निश्चय से (प्रत्यायन्) = ये अंगिरस् प्राप्त होते है। हे (जरितः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (ताम्) = उस दक्षिणा को (उह) = अवश्य ही (प्रत्यायन) = प्राप्त होते हैं। इस दक्षिणा-प्राप्त धनों का विनियोग वे यज्ञों में ही करते हैं।

    भावार्थ - गुणों का आदान करनेवाले ज्ञानी पुरुष स्वयं घरों में यज्ञ करते ही हैं। ये यज्ञों के रक्षक अंगिरसों के लिए भी दक्षिणा प्राप्त कराके उनसे किये जानेवाले यज्ञों में सहायक होते हैं।

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