अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 7
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
तां ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णं॒स्तामु ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णः। अहा॑नेतरसं न॒ वि चे॒तना॑नि य॒ज्ञानेत॑रसं न॒ पुरो॒गवा॑मः ॥
स्वर सहित पद पाठताम् । ह॑ । जरित: । न॒: । प्रति॑ । अ॑गृभ्ण॒न् । ताम् । ऊं॒ इति॑ । ह॑ । जरित: । न॒: । प्रति॑ । अ॑गृभ्ण: ॥ अहा॑नेतरसम् । न॒ । वि । चे॒तना॑नि । य॒ज्ञानेत॑रसम् । न॒ । पुरो॒गवा॑म: ॥१३५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तां ह जरितर्नः प्रत्यगृभ्णंस्तामु ह जरितर्नः प्रत्यगृभ्णः। अहानेतरसं न वि चेतनानि यज्ञानेतरसं न पुरोगवामः ॥
स्वर रहित पद पाठताम् । ह । जरित: । न: । प्रति । अगृभ्णन् । ताम् । ऊं इति । ह । जरित: । न: । प्रति । अगृभ्ण: ॥ अहानेतरसम् । न । वि । चेतनानि । यज्ञानेतरसम् । न । पुरोगवाम: ॥१३५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 7
विषय - "दान-स्वाध्याय-यज्ञ'
पदार्थ -
१. हे (जरितः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (न:) = हमारी (ताम्) = उस दक्षिणा को ये अंगिरा (ह) = निश्चय से (प्रत्यगृभ्णन्) = ग्रहण करते हैं। हे (जरितः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (न:) = हमारी (ताम्) = उस दक्षिणा को (उ ह) = निश्चय से (प्रत्यगृभ्ण:) = ग्रहण कीजिए। आपके नाम पर हम जो दान दें, वह दान हमें आपका प्रिय बनाए। २. आपकी हमारे लिए यही तो प्रेरणा है कि (वि चेतनानि) = ज्ञानशून्य (अहान इत) = [अहानेत]-दिनों को मत प्राप्त करो, अर्थात् तुम्हारा प्रत्येक दिन स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवृद्धिवाला बने। (रसं न) = [इत]-विषयों को मत प्राप्त होओ। तुम्हें विषयों का चस्का न लग जाए। (यज्ञान् आ इत) = [यज्ञानेत]-यज्ञों को तुम प्राप्त होओ। तुम्हारा जीवन यज्ञमय हो। (रसं न) = विषयों के चस्कों में ही न पड़ जाओ। ३. हे प्रभो! आपकी इस प्रेरणा को सुनकर स्वाध्याय व यज्ञों में लगे हुए हम निरन्तर (पुरोगवाम:) = [गवतिर्गतिकर्मा]-आगे और आगे चलते हैं। उन्नति का मार्ग यही है कि हम 'स्वाध्याय व यज्ञ' को ही अपना कर्तव्य समझें-विषयों में न फंसे।
भावार्थ - हमारा जीवन 'दान, स्वाध्याय व यज्ञ' को अपनाने के द्वारा उन्नत और उन्नत होता चले।
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