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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 8
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - भुरिग्गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः। उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । श्वेत॒: । आशु॑पत्वा: । उ॒तो । पद्या॑भि॒: । वसि॑ष्ठ: ॥ उ॒त । ईम् । आशु॒ । मान॑म् । पिपर्ति ॥१३५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत श्वेत आशुपत्वा उतो पद्याभिर्यविष्ठः। उतेमाशु मानं पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । श्वेत: । आशुपत्वा: । उतो । पद्याभि: । वसिष्ठ: ॥ उत । ईम् । आशु । मानम् । पिपर्ति ॥१३५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार 'दान, स्वाध्याय व यज्ञ' को अपनानेवाला व्यक्ति (उत) = निश्चय से (श्वेत:) = शुद्ध चरित्रवाला होता है-इसके जीवन से वासनारूप मल विनष्ट हो जाता है। यह (आशुपत्वा:) = शीघ्रगामी होता है-अपने कर्तव्यकर्मों को स्फूर्ति के साथ करनेवाला होता है। (उत उ) = और निश्चय से यह पद्याभिः कर्त्तव्यकर्मों में गतियों के द्वारा [पद् गतौ] (यविष्ठः) = बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाला होता है [यु मिश्रणामिश्रणयोः] २. (उत) = और (ईम्) = निश्चय से यह साधक (आशु) = शीघ्र ही (मानं पिपर्ति) = मान का पालन करता है। यह मर्यादा ही इसके जीवन को सुन्दर बनाती है।

    भावार्थ - हमारा जीवन शुद्ध हो, हम शीघ्र गतिवाले हों, क्रियाशीलता द्वारा जीवन को बुराइयों से बचाए रक्खें। मर्यादा का हम कभी उल्लंघन न करें।

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