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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 9
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः। इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आदि॑त्या: । रु॒द्रा: । वस॑व॒ । त्वे । अनु॑ । ते । इ॒दम् । राध॒: । प्रति॑ । गृभ्णीहि ।अङ्गिर: ॥ इ॒दम् । राध॑: । वि॒भु । प्रभु॑ । इ॒दम् । राध॑: । बृ॒हत् । पृथु॑ ॥१३५.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्या रुद्रा वसवस्त्वेनु त इदं राधः प्रति गृभ्णीह्यङ्गिरः। इदं राधो विभु प्रभु इदं राधो बृहत्पृथु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदित्या: । रुद्रा: । वसव । त्वे । अनु । ते । इदम् । राध: । प्रति । गृभ्णीहि ।अङ्गिर: ॥ इदम् । राध: । विभु । प्रभु । इदम् । राध: । बृहत् । पृथु ॥१३५.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. हे (अंगिरः) = गतिशील [अगि गा]-आलस्यशून्य विद्यार्थिन्। (आदित्या:) = 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' तीनों से सम्बद्ध ज्ञान को प्राप्त करनेवाले विद्वन्! (रुद्रा:) = ज्ञानोपदेश द्वारा [रुत्] जीवनों को पवित्र बनानेवाला उपदेष्टा तथा (वसवः) = ज्ञानोपदेश द्वारा जीवन को उत्तम बनानेवाले (विद्वान् त्वे अनु) = तेरे प्रति अनुकूलतावाले हैं। (ते) = तेरे लिए वे 'आदित्य, रुद्र व वस'(इदं राध:) = इस ज्ञानेश्वर्य को प्राप्त कराते हैं। है अंगिरः! तू इस ज्ञानेश्वर्य को (प्रतिगृभ्णीहि) = ग्रहण कर। परिश्रमी विद्यार्थी आचार्यों को सदा प्रिय होता है। वे इसके लिए ज्ञानरूप ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं। २. हे अंगिरः! (इदं राध:) = यह ज्ञानेश्वर्य (विभु) = जीवन को वैभवमय बनानेवाला है, (प्रभु) = यह जीवन को प्रभावयुक्त करता है। (इदं राध:) = यह ऐश्वर्य (बृहत्) = वृद्धि का साधन बनता है [वृहि वृद्धौ] तथा (पृथु) = शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है।

    भावार्थ - हम गतिशील-आलस्यशून्य-बनें। हमें 'आदित्यों, रुद्रों व वसओं'द्वारा वह ज्ञानेश्वर्य प्राप्त होगा जो हमारे 'वैभव व प्रभाव, वृद्धि व शक्ति-विस्तार' का साधन बनेगा।

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