अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 11
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - निचृदार्ष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
त्वमि॑न्द्र श॒र्मरि॑णा ह॒व्यं पारा॑वतेभ्यः। विप्रा॑य स्तुव॒ते व॑सु॒वनिं॑ दुरश्रव॒से व॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॑न्द्र । श॒र्म । रि॑णा: । ह॒व्यम् । परा॑वतेभ्य: ॥ विप्रा॑य । स्तुव॒ते । व॑सुव॑निम् । दुरश्रव॒से । व॑ह ॥१३५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र शर्मरिणा हव्यं पारावतेभ्यः। विप्राय स्तुवते वसुवनिं दुरश्रवसे वह ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । शर्म । रिणा: । हव्यम् । परावतेभ्य: ॥ विप्राय । स्तुवते । वसुवनिम् । दुरश्रवसे । वह ॥१३५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 11
विषय - 'पारावत'
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (पारावतेभ्य:) = [परात् शत्रोः अंहकारात् ज्ञानोपदेशेन अवति] ज्ञानोपदेश द्वारा अहंकाररूप शत्रु से बचानेवाले ज्ञानियों के लिए (शर्म) = सुख को व (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को-जीवन के लिए आवश्यक यज्ञिय पदार्थों को (रिणा:) = प्राप्त कराते हैं। २. हे प्रभो। आप (विप्राय) = [विप्रा पूरणे] अपनी कमियों को दूर करनेवाले दुरभवसे [दुई हिंसायाम्, दुरंश्रवो यस्य]-शत्रुसंहारक ज्ञानवाले (स्तुवते) = स्तोता के लिए (वसुवनिं वह) = निवास के लिए आवश्यक धन के संभजन को (वह) = प्राप्त कराइए।
भावार्थ - हम ज्ञान द्वारा अहंकाररूप शत्रु से बचानेवाले बनें। प्रभु हमें सुख व हव्य पदार्थों को प्राप्त कराएंगे। हम अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले, वासनासंहारक ज्ञानवाले व स्तोता बनें। प्रभु हमारे लिए निवास को उत्तम बनानेवाले धन का संभजन करेंगे।
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