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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः। दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुक् । इ॑ति । अ॒भिऽग॑तु॒: । शल् । इ॑ति । अ॒पऽक्रा॑न्त॒: । फल् । इ॑ति । अ॒भिऽस्थि॑त: ॥ दुन्दुभि॑म् । आहनना॒भ्याम् । जरित: । आ । उथाम॑: । दै॒व ॥१३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुगित्यभिगतः शलित्यपक्रान्तः फलित्यभिष्ठितः। दुन्दुभिमाहननाभ्यां जरितरोथामो दैव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुक् । इति । अभिऽगतु: । शल् । इति । अपऽक्रान्त: । फल् । इति । अभिऽस्थित: ॥ दुन्दुभिम् । आहननाभ्याम् । जरित: । आ । उथाम: । दैव ॥१३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (भुक्) = 'हे प्रभो! आप ही तो पालनेवाले हो' (इति) = यह चिन्तन करता हुआ स्तोता (अभिगत:) = आपकी ओर चलनेवाला बनता है। (शल्) = 'वह प्रभु ही संसार का संचालक है, सम्पूर्ण गतियों को देनेवाले वे प्रभु ही हैं' (इति) = यह सोचकर (अपक्रान्तः) = यह स्तोता सब विषय वासनाओं से दूर हो जाता है। सर्वत्र प्रभु की गति को देखता हुआ उसकी सर्वव्यापकता को अनुभव करता हुआ विषयों में नहीं फंसता। (फल्) = 'प्रभु ही सब वासनाओं को विशीर्ण करनेवाले है' (इति) = यह सोचकर यह स्तोता (अभिष्ठित:) = प्रात:-सायं उस प्रभु के चरणों में स्थित होता है। यह प्रभु की उपासना ही उसे काम, क्रोध को पराजित करने में समर्थ करती है। २. हे (जरित:) = हमारी वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो! (दैव) = सब देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले प्रभो! हम (आहननाभ्याम्) = [हन् गतौ] शरीर में सर्वत्र [आ] प्राणापान की गति के द्वारा (दुन्दुभिः) = अन्तर्नाद को (आउथामः) = [उत्थापयामः] उठाने का प्रयत्न करते हैं। प्राणायाम द्वारा मलों के दूर होने पर ही तो अन्त:स्थित आपकी प्रेरणा सुन पड़ती है।

    भावार्थ - हम प्रभु को "भुक्' जानकर प्रभु की ओर चलें, उसे 'शल' समझते हुए वासनाओं से बचें, उसे 'फल'जानते हुए प्रात:-सायं प्रभु-चरणों में स्थित हों। प्राणसाधना द्वारा मलों को विक्षिप्त करके अन्तर्नाद को सुनने का प्रयत्न करें।

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