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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑।दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। जाग्र॑तः। दू॒रम्। उ॒दैतीत्यु॒त्ऽऐति॑। दैव॑म्। तत्। ऊँ॒ इत्यूँ। सु॒प्तस्य॑। तथा॑। ए॒व। एति॑ ॥ दू॒र॒ङ्गममिति॑ दू॒रम्ऽग॒मम्। ज्योति॑षाम्। ज्योतिः॑। एक॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवन्तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमञ्ज्योतिषाञ्ज्योतिरेकन्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। जाग्रतः। दूरम्। उदैतीत्युत्ऽऐति। दैवम्। तत्। ऊँ इत्यूँ। सुप्तस्य। तथा। एव। एति॥ दूरङ्गममिति दूरम्ऽगमम्। ज्योतिषाम्। ज्योतिः। एकम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -

    पदार्थ = हे सर्वव्यापक जगदीश्वर ! ( यत् ) = जो मुझ जीवात्मा का  ( मनः )  = संकल्प विकल्प करनेवाला अन्तःकरण  ( दैवम् ) = ज्ञानादि दिव्य गुणोंवाला और प्रकाशस्वरूप  ( जाग्रतः ) = जागते हुए का ( दूरम् उद् आ एति ) = दूर-दूर देशों में जाया करता है और  ( सुप्तस्य ) = सोते हुए [मुझ] का  ( तथा एव ) = उसी प्रकार  ( एति ) = भीतर आ जाता है  ( तत् ) = वही मन  ( उ ) = निश्चय से  ( ज्योतिषाम् ) = सूर्य, चन्द्रादि प्रकाशकों का और नाना विषयों के प्रकाश करनेवाले इन्द्रियगण का  ( ज्योतिः ) = प्रकाशक है, और वही मन  ( दूरङ्गमम् ) = दूर तक पहुँचानेवाला  ( तत् ) = वह  ( मे मनः ) = मेरा मन  ( शिवसङ्कल्पम् ) = शुभ कल्याणमय संकल्प करनेवाला  ( अस्तु ) = हो । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे सर्वान्तर्यामी सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ! आपकी कृपा से मेरा मन, शुभमंगलमय कल्याण का सङ्गल्प करनेवाला हो, कभी दुष्ट सङ्कल्प करनेवाला न हो, क्योंकि यह मन अति चंचल है, जागृत अवस्था में दूर-दूर तक भागता फिरता है। जब हम सो जाते हैं तब भी यह मन अन्दर भटकता रहता है, वही दिव्य मन दूर-दूर देशों में आने जानेवाला और ज्योतियों का ज्योति है। क्योंकि मन के बिना किसी ज्योति का ज्ञान नहीं हो सकता। दयामय परमात्मन्! यह मन आपकी कृपा से ही शुभ सङ्कल्पवाला हो सकता है।

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