यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 35
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - भगो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
3
प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रꣳ हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्त्ता।आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द् राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒त॒र्जित॒मिति॑ प्रातः॒ऽजित॑म्। भग॑म्। उ॒ग्रम्। हु॒वे॒म॒। व॒यम्। पु॒त्रम्। अदि॑तेः। यः। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता ॥ आ॒ध्रः। चि॒त्। यम्। मन्य॑मानः। तु॒रः। चि॒त्। राजा॑। चि॒त्। यम्। भग॑म्। भ॒क्षि॒। इति॑। आह॑ ॥३५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातर्जितम्भगमुग्रँ हुवेम वयम्पुत्रमदितेर्या विधर्ता । आध्रश्चिद्यम्मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यम्भगम्भक्षीत्याह ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रातर्जितमिति प्रातःऽजितम्। भगम्। उग्रम्। हुवेम। वयम्। पुत्रम्। अदितेः। यः। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता॥ आध्रः। चित्। यम्। मन्यमानः। तुरः। चित्। राजा। चित्। यम्। भगम्। भक्षि। इति। आह॥३५॥
पदार्थ -
पदार्थ = ( प्रातः ) = समय में ( जितम् ) = जयशील ( भंगम् ) = ऐश्वर्य के दाता ( उग्रम् ) = बड़े तेजस्वी ( अदितेः ) = अन्तरिक्ष के ( पुत्रम् ) = सूर्य के उत्पत्तिकर्ता ( यः ) = जो सूर्य चन्द्रादि लोकों का ( विधर्ता ) = विशेष करके धारण करने हारा ( आध्रः ) = सब ओर से धारण कर्ता ( यम् चित् ) = जिस किसी का भी ( मन्यमानः ) = जानने हारा ( तुर: चित् ) = दुष्टों का भी दण्डदाता ( राजा ) = सबका प्रकाशक और स्वामी है ( यम् भगम् ) = जिस भजनीय स्वरूप को ( चित् ) = भी ( भक्षीति ) = इस प्रकार सेवन करता हूँ और इसी प्रकार भगवान् परमेश्वर सबको ( आह ) = उपदेश करते हैं कि तुम, जो मैं सूर्यादि लोक-लोकान्तरों का बनाने और धारण करने हारा हूँ, उस मेरी उपासना किया करो और मेरी आज्ञा में रहो, इससे ( वयम् हुवेम ) = हम लोग उसकी स्तुति करते हैं।
भावार्थ -
भावार्थ = हे सर्वशक्तिमन्! महातेजस्विन् जगदीश! आपकी महिमा को कौन जान सकता है ? आपने सूर्य, चन्द्र, बुध, बृहस्पति, मंगल, शुक्रादि लोकों को बनाया और इनमें अनन्त प्राणी बसाये हैं। उन सबको आपने ही धारण किया और उनमें बसनेवाले प्राणियों के गुण-कर्म-स्वभावों को आप ही जानते और उनको सुख दुःखादि देते हैं। ऐसे महासमर्थ आप प्रभु को, प्रातःकाल में हम स्मरण करते हैं। आप अपने स्मरण का प्रकार भी मन्त्रों द्वारा बता रहे हैं, यह आपकी अपार कृपा है, जिसको हम कभी भूल नहीं सकते।
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