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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अपा॑ताम॒श्विना॑ घ॒र्ममनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑मꣳसाताम्।इ॒हैव रा॒तयः॑ सन्तु॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपा॑ताम्। अ॒श्विना॑। घ॒र्मम्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒म॒ꣳसा॒ता॒म् ॥ इ॒ह। ए॒व। रा॒तयः॑। स॑न्तु॒ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपातामश्विना घर्ममनु द्यावापृथिवी अमँसाताम् । इहैव रातयः सन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाताम्। अश्विना। घर्मम्। अनु। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। अमꣳसाताम्॥ इह। एव। रातयः। सन्तु॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -
    हे राजप्रजावर्गो ! आप दोनों (द्यावापृथिवी अनु) सूर्य और पृथिवी के समान परस्पर उपकारक होकर ( धर्मम् ) राष्ट्रपति का पालन और राष्ट्र-ऐश्वर्य को रस के समान (पातम् ) पालन और उपभोग करो । ( अनु अमंसाताम् ) एक दूसरे का आदर, मान करो । ( इह एव) यहां, ( रातयः ) विद्यादि सुखों और ऐश्वर्यौं के दान भी (सन्तु) हों । स्त्री-पुरुष अपने गृहस्थरूप यज्ञ की रक्षा करें, नाना दान भी करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ । निचृदुष्णिक । ऋषभः ॥

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