यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 1
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्।आ द॒देऽदि॑त्यै॒ रास्ना॑ऽसि॥१॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम् ॥ आ। द॒दे॒। अदि॑त्यै। रास्ना॑। अ॒सि॒ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आ ददेदित्यै रास्नासि ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्॥ आ। ददे। अदित्यै। रास्ना। असि॥१॥
विषय - पृथ्वी स्त्री का समान वर्णन।
भावार्थ -
हे पृथिवि ! पृथिवीनिवासिनि प्रजे ! हे स्त्रि ! ( देवस्य ) कान्तियुक्त, कामनावान् ( सवितः) सकल जगत् के उत्पादक ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न हुए संसार में (अश्विनोः) सूर्य के समान दिन और रात्रि के समान स्त्री और पुरुष धर्मों से युक्त दायें बायें देहों के ( बाहुभ्याम् ) बाहुरूप बलवीर्यो से और ( पूष्णः हस्ताभ्याम् ) पूषा सर्वपोषक पति या स्वामी के (हस्ताभ्याम् ) हाथों से (वा) मैं तुझको (आददे) ग्रहण करता हूँ । राजा या स्वामी होकर पृथिवी को स्त्री के समान स्वीकार करता हूँ । मैं पति तुझ स्त्री को अपने बाहुओं और हाथों से स्वीकार करता हूँ । है राज्यव्यवस्थे ! राजसभे ! तू (अदित्यै) पृथिवी की (रास्न्ना असि) गाय के बंधी रस्सी के समान बांधने वाली, प्रजाओं को सत्य उपदेश करने वाली, सन्मार्ग पर चलाने वाली है ।
'रास्ना' रासृ शब्दे | भ्वादि० । निपातनान्नक औणादिः । रास्ना ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ अ० ] दध्यङ् आथर्वणः । सविता | निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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