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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 17
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒भीमं म॑हि॒मा दिवं॒ विप्रो॑ बभूव स॒प्रथाः॑।उ॒त श्रव॑सा पृथि॒वी सꣳ सी॑दस्व म॒हाँ२ऽ अ॑सि॒ रोच॑स्व देव॒वीत॑मः।वि धू॒मम॑ग्नेऽअरु॒षं मि॑येद्ध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम्॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। इ॒मम्। म॒हि॒मा। दिव॑म्। विप्रः॑। ब॒भू॒व॒। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑। उ॒त। श्रव॑सा। पृ॒थि॒वीम्। सम्। सी॒द॒स्व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। रोच॑स्व। दे॒व॒वीत॑म॒ इति॑ देव॒ऽवीत॑मः। वि। धू॒मम्। अ॒ग्ने॒। अ॒रु॒षम्। मि॒ये॒ध्य॒। सृ॒ज। प्र॒श॒स्त॒। द॒र्श॒तम् ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीमम्महिमा दिवँविप्रो बभूव सप्रथाः । उत श्रवसा पृथिवीँ सँ सीदस्व महाँऽअसि रोचस्व देववीतमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। इमम्। महिमा। दिवम्। विप्रः। बभूव। सप्रथा इति सऽप्रथाः। उत। श्रवसा। पृथिवीम्। सम्। सीदस्व। महान्। असि। रोचस्व। देववीतम इति देवऽवीतमः। वि। धूमम्। अग्ने। अरुषम्। मियेध्य। सृज। प्रशस्त। दर्शतम्॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 17
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    भावार्थ -
    हे वीर विद्वन् ! राजन् ! (महिमा) तेरा महान् सामर्थ्य ( इम दिवम् ) इस तेजस्वी सूर्य को भी (अभि बभूव ) मात करे । वह (विप्रः) विविध प्रजाओं को पूर्ण करने वाला और (सप्रथाः) सर्वत्र एक साथ फैलने वाला है । (उत) और (श्रवसा ) यश और ऐश्वर्य के बल से तू ( पृथिवीम् ) पृथिवी पर (सं सीदस्व) अच्छी प्रकार विराजमान हो । तू (महान् असि) बड़ा, बड़े सामर्थ्य वाला है । (देववीतम:) दिव्य गुणों से आंत अधिक प्रकाशमान होकर (रोचस्व ) सबको प्रिय हो । हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन्! हे (मियेध्य) शत्रुओं के नाश करने में समर्थ ! अग्नि अन्धकार के समय अपने तेज से भभकते हुए लाल धुएं को छोड़ता है उसी प्रकार तु भी ( अरुषम् ) रोषहित, प्रेमयुक्त, देदीप्यमान, प्रतापशाली (दर्शतम् ) दर्शनीय, (धूमम् ) शत्रुओं के कंपाने वाले सेनाबल को (वि सृज) विविध दिशाओं में भेज और विजय कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । व्यवसाना निचृद् अति शक्वरी । पंचमः ॥

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