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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 16
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - रुद्रादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिधृतिः स्वरः - षड्जः
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    स्वाहा॑ रु॒द्राय॑ रु॒द्रहू॑तये॒ स्वाहा॒ सं ज्योति॑षा॒ ज्योतिः॑।अहः॑ के॒तुना॑ जुषता सु॒ज्योति॒र्ज्योति॑षा॒ स्वाहा॑।रात्रिः॑ के॒तुना जुषता सु॒ज्योति॒र्ज्योति॑षा॒ स्वाहा॑।मधु॑ हु॒तमिन्द्र॑तमेऽअ॒ग्नाव॒श्याम॑ ते देव घर्म॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। रु॒द्राय॑। रु॒दाय॑। रु॒द्रहू॑तये॒ इति॑ रुद्र॒ऽहू॑तये। स्वाहा॑। सम्। ज्योति॑षा। ज्योतिः॑। अह॒रित्यहः॑। के॒तुना॑। जु॒ष॒ता॒म्। सु॒ज्योति॒रिति॑ सु॒ऽज्योतिः॑। ज्योति॑षा। स्वाहा॑। रात्रिः॑। के॒तुना॑। जु॒ष॒ता॒म्। सु॒ज्योति॒रिति॑ सु॒ऽज्योतिः॑। ज्योति॑षा। स्वाहा॑। रात्रिः॑। के॒तुना॑। जु॒ष॒ता॒म्। सु॒ज्योति॒रिति॑। सु॒ऽज्योतिः॑। ज्योति॑षा। स्वाहा॑ ॥ मधु॑। हु॒तम्। इन्द्र॑तम॒ इतीन्द्र॑ऽतमे। अ॒ग्नौ। अ॒श्याम॑। ते॒। दे॒व॒। घ॒र्म॒। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒ ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा रुद्राय रुद्रहूतये । स्वाहा सञ्ज्योतिषा ज्योतिः अहः केतुना जुषताँ सुज्योतिर्ज्यातिषा स्वाहा । रात्रिः केतुना जुषताँ सुज्योतिर्ज्यातिषा स्वाहा । मधु हुतमिन्द्रतमेऽअग्नावश्याम ते देव घर्म नमस्तेऽअस्तु मा मा हिँसीः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। रुद्राय। रुदाय। रुद्रहूतये इति रुद्रऽहूतये। स्वाहा। सम्। ज्योतिषा। ज्योतिः। अहरित्यहः। केतुना। जुषताम्। सुज्योतिरिति सुऽज्योतिः। ज्योतिषा। स्वाहा। रात्रिः। केतुना। जुषताम्। सुज्योतिरिति सुऽज्योतिः। ज्योतिषा। स्वाहा। रात्रिः। केतुना। जुषताम्। सुज्योतिरिति। सुऽज्योतिः। ज्योतिषा। स्वाहा॥ मधु। हुतम्। इन्द्रतम इतीन्द्रऽतमे। अग्नौ। अश्याम। ते। देव। घर्म। नमः। ते। अस्तु। मा। मा। हिꣳसीः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 16
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    भावार्थ -
    ( रुद्रहुतये) दुष्टों को रुलाने, वीर पुरुषों को आह्वान करने वाले, उनके आज्ञापक, ( रुद्राय ) रुद्ररूप सेनापति को (स्वाहा ) उत्तम आदर प्राप्त हो । ( स्वाहा ) सत्य वाणी से (ज्योतिः) ज्योति, प्रकाश (जयोतिषा) अपने से अधिक बल प्रकाश से मिल कर एक हो जाता है उसी प्रकार वीर पुरुष वीर सेनापति से मिलकर एक हो जायें । (अहः केतुना) दिन उसके व्यापक प्रवर्त्तक सूर्य से युक्त होता है उसी प्रकार (सुज्योतिः) उत्तम, तेज वाला सेनापति (स्वाहा ) उत्तम सत्य वचन द्वारा (ज्योतिषा) तेजस्वी पुरुष से ( संजुषताम् ) सुसंगत हो, (केतुना ) रात्रि के ज्ञापक चन्द्र से (रात्रिः) सब प्राणियों को सुख देने वाली रात्रि युक्त होती है उसी प्रकार ( ज्योतिषा ) ज्योतिर्मय तेजस्वी, ज्ञानवान् पुरुष से (सुज्योतिः) उत्तम ज्योति वाली (रात्रिः) सब प्रजा को सुखदायी राज्य व्यवस्था ( स्वाहा ) उत्तम, सत्यक्रिया द्वारा ( जुषताम् ) संयुक्त रहे । (इन्द्रतमे) अति वीर्यवान् तेजस्वी (अग्नौ ) भाग में (हुतम् मधु आहुति किये हुए मधुर सुगन्धयुक्त अन्नादि पदार्थ को हम उपभोग करते हैं उसी प्रकार तुझ (चन्द्रतमे) सबसे अधिक बलवान्, ऐश्वर्यवान् (अग्नौ ) शत्रु को भाग के समान जला डालने वाले तेजस्वी राजा के अधीन (हुतम्) प्रदान किये (मधु) पृथिवीरूप राष्ट्र का हम प्रजाजन ( अश्याम) भोग करें । हे (देव) विजिगीषो ! हे (घर्मं) तेजस्विन्! राजन् ! (ते नमः अस्तु) तुझे अन्न, आदर, बल, वीर्यं प्राप्त हो । (मा) मुझ प्रजावर्ग को तू (मा हिंसी:) मत मार, पीड़ित मत कर । (२) सामान्य जीवों के पक्ष में - ( रुद्रहुतये रुद्राय) प्राणों की आहुति से जीने वाले जीव के लिये (ज्योतिषा ज्योति: सम् जुषताम् ) प्रकाश के साथ प्रकाश संगत करे । (केतुना) बुद्धिपूर्वक (अहः रात्रिः) दिन और रात्रि को भी (ज्योतिषा ज्योति:) ज्ञान से सद्- गुणों को और मनन चिन्तन से धर्मादि तत्वों को संगत कर सेवन करो । अति तीव्र अग्नि में आहुति किये घृतादि मधुर पदार्थों को हम प्राप्त हों । हे परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । आप हमें पीड़ित न कर पालन करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - रुद्रादयः । भूरिगतिधृतिः । षड्जः ॥

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