यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 22
अचि॑क्रद॒द् वृषा॒ हरि॑र्म॒हान् मि॒त्रो न द॑र्श॒तः।सꣳ सूर्य्ये॑ण दिद्युतदुद॒धिर्नि॒धिः॥२२॥
स्वर सहित पद पाठअचि॑क्रदत्। वृषा॑। हरिः॑। म॒हान्। मि॒त्रः। न। द॒र्श॒तः ॥ सम्। सूर्य्ये॑ण। दि॒द्यु॒त॒त्। उ॒द॒धिरित्यु॑द॒ऽधिः। नि॒धिरिति॑ नि॒ऽधिः ॥२२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सँ सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अचिक्रदत्। वृषा। हरिः। महान्। मित्रः। न। दर्शतः॥ सम्। सूर्य्येण। दिद्युतत्। उदधिरित्युदऽधिः। निधिरिति निऽधिः॥२२॥
विषय - सार पदार्थ ग्रहण करने का उपदेश ।
भावार्थ -
(वृषा) शत्रुओं को रोकने में समर्थ, प्रजाओं पर सुखों की वर्षा करने वाला पुरुष मेघ के समान (अचिक्रदत् ) गर्जन करता है । (हरिः) प्रजाओं के दुःखों को हरने और सूर्य के समान प्रजा से कर लेने वाला होकर, (मित्र: न) सूर्य के समान सबके प्रति समान भाव से स्नेही, न्यायकारी, (दर्शत: ) सब से दर्शनीय और सबका द्रष्टा है । वह ही (सूर्येण) सूर्य के समान तेज से ( सं दिद्युतत् ) अच्छी प्रकार चमके | वह शौर्य, वीर्य, बल, पराक्रम और उपकार आदि अपने गुणों को प्रकाशित करे | वह (उदधिः) सागर के समान गम्भीर हो और ( निधिः) कोश, खजाने के समान सब ऐश्वर्यों का रक्षक हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । परोष्णिक । ऋषभः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal