यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 27
मयि॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हन्मयि॒ दक्षो॒ मयि॒ क्रतुः॑।घ॒र्मस्त्रि॒शुग्वि रा॑जति वि॒राजा॒ ज्योति॑षा स॒ह ब्रह्म॑णा॒ तेज॑सा स॒ह॥२७॥
स्वर सहित पद पाठमयि॑। त्यत्। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। मयि॑। दक्षः॑। मयि॑। क्रतुः॑ ॥ घ॒र्मः। त्रि॒शुगिति॑ त्रि॒ऽशुक्। वि। रा॒ज॒ति॒। वि॒राजेति॑ वि॒ऽराजा॑। ज्योति॑षा। स॒ह। ब्रह्म॑णा। तेज॑सा। स॒ह ॥२७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मयि त्यदिन्द्रियम्बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः । घर्मस्त्रिशुग्वि राजति विराजा ज्योतिषा सह ब्रह्मणा तेजसा सह ॥
स्वर रहित पद पाठ
मयि। त्यत्। इन्द्रियम्। बृहत्। मयि। दक्षः। मयि। क्रतुः॥ घर्मः। त्रिशुगिति त्रिऽशुक्। वि। राजति। विराजेति विऽराजा। ज्योतिषा। सह। ब्रह्मणा। तेजसा। सह॥२७॥
विषय - विद्वान् के उद्देश्य और कर्तव्य ।
भावार्थ -
( मयि ) मुझ प्रजावर्ग में ( त्यत् ) वह अलौकिक, अपूर्व, वाञ्छनीय ( बृहत् ) बड़ा भारी (इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य बल प्राप्त हो । (मयि: तक्षः) मुझमें बल, प्रज्ञा, बुद्धि प्राप्त हो । ( मयि ) मुझ राजा के अधीन (क्रतुः) बड़ा भारी ऐश्वर्य युक्त राष्ट्रबल और राज्यकार्य प्राप्त हो । इस प्रकार ( धर्मं: ) तेजस्वी राजा ( त्रिशुक) अग्नि, विद्युत्, सूर्य तीनों के समान तेजस्वी होकर ( विराजा ज्योतिषा ) विराट् प्रकाश, विविध राजोचित तेज और (ब्रह्मणा तेजसा ) ब्रह्म, वेदमय, बड़े भारी ऐश्वर्यमय तीक्ष्ण प्रताप के (सह) साथ (विराजति) विराजे, शोभा को प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । पंक्तिः । पंचमः ॥
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