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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त

    व॑र॒णो वा॑रयाता अ॒यं दे॒वो वन॒स्पतिः॑। यक्ष्मो॒ यो अ॒स्मिन्नावि॑ष्ट॒स्तमु॑ दे॒वा अ॑वीवरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒र॒ण: । वा॒र॒या॒तै॒ । अ॒यम् । दे॒व: । वन॒स्पति॑: । यक्ष्म॑: । य: । अ॒स्मिन् ।आऽवि॑ष्ट: । तम् । ऊं॒ इति॑ । दे॒वा: । अ॒वी॒व॒र॒न् ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरणो वारयाता अयं देवो वनस्पतिः। यक्ष्मो यो अस्मिन्नाविष्टस्तमु देवा अवीवरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वरण: । वारयातै । अयम् । देव: । वनस्पति: । यक्ष्म: । य: । अस्मिन् ।आऽविष्ट: । तम् । ऊं इति । देवा: । अवीवरन् ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (अयं) यह (वरणः) शत्रु को वारण करने में समर्थ पुरुष (देवः) दिव्य गुणवान् कान्तिमान्, तेजस्वी, राजा साक्षात् (वनस्पतिः) वृक्ष के समान आश्रय है। अर्थात् जिस प्रकार घना वृक्ष अपने शरण आये व्यक्ति को छाया देता और उसको सूर्य के ताप से बचाता और फल भी प्रदान करता है ऐसे ही वह भी अपने आश्रितों को शत्रु के तीव्र प्रहारों से बचाता और अपने उत्तम ऐश्वर्यों से आश्रितों को पुष्ट करता है। (यः अस्मिन्) इसके भीतर (यक्ष्मः पूजा सत्कार के योग्य महान् आत्मा (आविष्टः) प्रविष्ट है। (देवाः) देव विद्वान् लोग (तम् उ) उसका श्रेष्ठ रूप में वरण करते और राज्यसिंहासन पर अभिषेक करते हैं या उसकी शरण लेते उसको आश्रय वृक्ष के समान घेरे रहते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥

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