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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    यो॒भिया॑तो नि॒लय॑ते॒ त्वां रु॑द्र नि॒चिकी॑र्षति। प॒श्चाद॑नु॒प्रयु॑ङ्क्षे॒ तं वि॒द्धस्य॑ पद॒नीरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒भिऽया॑त: । नि॒ऽलय॑ते । त्वाम् । रु॒द्र॒ । नि॒ऽचिकी॑र्षति । प॒श्चात् । अ॒नु॒ऽप्रयु॑ङ्क्षे । तम् । वि॒ध्दस्य॑ । प॒द॒नी:ऽइ॑व ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योभियातो निलयते त्वां रुद्र निचिकीर्षति। पश्चादनुप्रयुङ्क्षे तं विद्धस्य पदनीरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अभिऽयात: । निऽलयते । त्वाम् । रुद्र । निऽचिकीर्षति । पश्चात् । अनुऽप्रयुङ्क्षे । तम् । विध्दस्य । पदनी:ऽइव ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 13

    भावार्थ -
    सेनापति योद्धा के समान काल रूप परमेश्वर का वर्णन पूर्व किया गया है। यहां पुनः उसीको खोलते हैं। जिस प्रकार प्रबल सेनापति के चढ़ आने पर निर्बल शत्रु छिप जाता है और पुनः अपने प्रबल आक्रामक को पीछे से दबोचना चाहता है, उसको प्रबल सेनानायक उसके चरणचिह्नों को देख देख कर खोज लेता है, और जैसे शिकारी घायल जानवर के चरण-चिह्न और खून के निशान देख कर खोज कर मारता है उसी प्रकार, हे (रुद्र) दुष्टों को रुलाने वाले (यः अभियातः) जो आक्रान्त होकर (निलयते) छिप जाता है और (त्वां निचिकीर्षति) तुझे नीचे दिखाना चाहता है तू (तम्) उसके (पश्चात्) पीछे पीछे पुनः (विद्वस्य पदनीः इव) घायल जानवर की चरण-पंक्तियों के समान तू उसको (अनु प्रयुङ्क्षे) खोजता है और उसे दण्ड देता है। पापी को परमात्मा कभी दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ता। उसी प्रकार राजा को भी अपने शत्रु को न छोड़ना चाहिये प्रत्युत उसकी खोज लगा कर दण्ड देना चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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