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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    63

    यो॒भिया॑तो नि॒लय॑ते॒ त्वां रु॑द्र नि॒चिकी॑र्षति। प॒श्चाद॑नु॒प्रयु॑ङ्क्षे॒ तं वि॒द्धस्य॑ पद॒नीरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒भिऽया॑त: । नि॒ऽलय॑ते । त्वाम् । रु॒द्र॒ । नि॒ऽचिकी॑र्षति । प॒श्चात् । अ॒नु॒ऽप्रयु॑ङ्क्षे । तम् । वि॒ध्दस्य॑ । प॒द॒नी:ऽइ॑व ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योभियातो निलयते त्वां रुद्र निचिकीर्षति। पश्चादनुप्रयुङ्क्षे तं विद्धस्य पदनीरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अभिऽयात: । निऽलयते । त्वाम् । रुद्र । निऽचिकीर्षति । पश्चात् । अनुऽप्रयुङ्क्षे । तम् । विध्दस्य । पदनी:ऽइव ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [दुष्कर्मी] (अभियातः) हारा हुआ (निलयते) छिप जाता है, और (रुद्र) हे रुद्र ! [दुःखनाशक] (त्वा) तुझे (निचिकीर्षति) हराना चाहता है। (पश्चात्) पीछे-पीछे (तम्) उसका (अनुप्रयुङ्क्षे) तू अनुप्रयोग करता है [यथा अपराध दण्ड देता है], (इव) जैसे (विद्धस्य) घायल का (पदनीः) पद खोजिया ॥१३॥

    भावार्थ

    जो दुष्ट गुप्त रीति से भी परमेश्वर की आज्ञा का भङ्ग करता है, परमेश्वर उसे दण्ड ही देता है, जैसे व्याध घायल आखेट के रुधिर आदि चिह्न से खोज लगा कर उसे पकड़ लेता है ॥१३॥इस मन्त्र का मिलान करो-अ० १०।१।२६ ॥

    टिप्पणी

    १३−(यः) दुष्कर्मी (अभियातः) अभिगतः। अभिभूतः सन् (निलयते) निलीनो गुप्तो भवति (त्वाम्) (रुद्र) म० ३। हे दुःखनाशक (निचिकीर्षति) डुकृञ् करणे, यद्वा, कृञ् हिंसायाम् सन्। निराकर्तुं नितरां हिंसितुं वेच्छति (पश्चात्) निरन्तरम् (अनुप्रयुङ्क्षे) अनुप्रयोगं करोषि। यथापराधं दण्डयसि (तम्) दुष्टम् (विद्धस्य) ताडितस्य। क्षतस्य (पदनीः) पद+णीञ् प्रापणे-क्विप्। पदचिह्नानां नेता। पदानुगामी (इव) यथा ॥

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    विषय

    भागकर कहाँ जाऐंगे?

    पदार्थ

    १.हे (रुद्र) = दुष्टों को रुलानेवाले प्रभो! जो भी पापकर्ता (अभियात:) = तुझसे अभिगत [आक्रान्त] होता हुआ (निलयते) = छुपाने की कोशिश करता है, और (त्वो निचिकीर्षति) = आपको हिंसित करना चाहता है, आप (पश्चात्) = एकदम इसके बाद ही (तम् अनुप्रयक्षे) = उस अपकारी जन को यथापराध दण्डित करते हैं। उसी प्रकार दण्डित करते हैं (इव) = जैसेकि (विद्धस्य पदनी:) = शस्त्रहत पुरुष के भूमि-निक्षिस पैरों के निशान देखता हुआ पुरुष शत्रु के निलयन-स्थान तक पहुँचकर उस शत्रु को प्रतिविद्ध करता है।

    भावार्थ

    पापकर्ता पुरुष प्रभु के बाण से अपने को बचा नहीं सकते। कहीं भी छिपकर भाग जाए, कितना भी प्रभु का हिंसन करना चाहे, वह रुद्र के बाणों का गोचर होकर ही रहता है।

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    भाषार्थ

    (यः अभियातः) जिस के प्रति रुद्र ने अभियाण अर्थात् आक्रमण किया है, (निलयते) और यदि वह छिप जाता है, (रुद्र) हे रुलाने वाले परमेश्वर ! जो इस प्रकार (त्वां निचिकीर्षति) तेरा अपमान करना चाहता है (तम्) उस का (पश्चाद् अनुप्रयुङ्क्षे) तू पीछा करता है, (इव) जैसे (पदनीः) पद खोजी शिकारी, (विद्धस्य) वीन्धे गए शिकार का पीछा करता है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि रुद्र परमेश्वर जिसे दण्डित करता है वह उस के दण्ड से बच नहीं सकता]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    सेनापति योद्धा के समान काल रूप परमेश्वर का वर्णन पूर्व किया गया है। यहां पुनः उसीको खोलते हैं। जिस प्रकार प्रबल सेनापति के चढ़ आने पर निर्बल शत्रु छिप जाता है और पुनः अपने प्रबल आक्रामक को पीछे से दबोचना चाहता है, उसको प्रबल सेनानायक उसके चरणचिह्नों को देख देख कर खोज लेता है, और जैसे शिकारी घायल जानवर के चरण-चिह्न और खून के निशान देख कर खोज कर मारता है उसी प्रकार, हे (रुद्र) दुष्टों को रुलाने वाले (यः अभियातः) जो आक्रान्त होकर (निलयते) छिप जाता है और (त्वां निचिकीर्षति) तुझे नीचे दिखाना चाहता है तू (तम्) उसके (पश्चात्) पीछे पीछे पुनः (विद्वस्य पदनीः इव) घायल जानवर की चरण-पंक्तियों के समान तू उसको (अनु प्रयुङ्क्षे) खोजता है और उसे दण्ड देता है। पापी को परमात्मा कभी दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ता। उसी प्रकार राजा को भी अपने शत्रु को न छोड़ना चाहिये प्रत्युत उसकी खोज लगा कर दण्ड देना चाहिये।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘त्वामुग्र नि०’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    Whoever the target of the strike, if he tries to evade and escape and thus render you ineffectual, you follow and overtake him as a hunter tracks the prey by the pugmarks.

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    Translation

    He who, attacked (abhi-ytah), hides himself, (who) tries to put thee down, O Rudra, him from behind thou pursuest, like the tracker (? padanih) of one that is pierced.

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    Translation

    This fire (used as fatal weapon) followes to overpower the weapon which attacked by it moves away and wants to make it ineffective like the tracing of food prints of wounded one.

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    Translation

    O King, the chastiser of the wicked, a defeated foe, flies and hides himself, and wants To conquer thee, attack him from behind, like a hunter who pursues the footsteps of the wounded game.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(यः) दुष्कर्मी (अभियातः) अभिगतः। अभिभूतः सन् (निलयते) निलीनो गुप्तो भवति (त्वाम्) (रुद्र) म० ३। हे दुःखनाशक (निचिकीर्षति) डुकृञ् करणे, यद्वा, कृञ् हिंसायाम् सन्। निराकर्तुं नितरां हिंसितुं वेच्छति (पश्चात्) निरन्तरम् (अनुप्रयुङ्क्षे) अनुप्रयोगं करोषि। यथापराधं दण्डयसि (तम्) दुष्टम् (विद्धस्य) ताडितस्य। क्षतस्य (पदनीः) पद+णीञ् प्रापणे-क्विप्। पदचिह्नानां नेता। पदानुगामी (इव) यथा ॥

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