अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - पुरोकृतिस्त्रिपदा विराट्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रुद्र सूक्त
48
तव॒ चत॑स्रः प्र॒दिश॒स्तव॒ द्यौस्तव॑ पृथि॒वी तवे॒दमु॑ग्रो॒र्वन्तरि॑क्षम्। तवे॒दं सर्व॑मात्म॒न्वद्यत्प्रा॒णत्पृ॑थि॒वीमनु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । चत॑स्र: । प्र॒ऽदिश॑: । तव॑ । द्यौ: । पृ॒थि॒वी । तव॑ । इ॒दम् । उ॒ग्र॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तव॑ । इ॒दम् । सर्व॑म् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । यत् । प्रा॒णत् । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तव चतस्रः प्रदिशस्तव द्यौस्तव पृथिवी तवेदमुग्रोर्वन्तरिक्षम्। तवेदं सर्वमात्मन्वद्यत्प्राणत्पृथिवीमनु ॥
स्वर रहित पद पाठतव । चतस्र: । प्रऽदिश: । तव । द्यौ: । पृथिवी । तव । इदम् । उग्र । उरु । अन्तरिक्षम् । तव । इदम् । सर्वम् । आत्मन्ऽवत् । यत् । प्राणत् । पृथिवीम् । अनु ॥२.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(उग्र) हे तेजस्वी ! [परमेश्वर] (तव) तेरी (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ हैं, (तव) तेरा (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य, (तव) तेरी (पृथिवी) फैली हुई भूमि, (तव) तेरा (इदम्) यह (उरु) चौड़ा (अन्तरिक्षम्) आकाश लोक है। (तव) तेरा ही (इदम्) यह (सर्वम्) सब है, (यत्) जो (आत्मन्वत्) आत्मावाला और (प्राणत्) प्राणवाला [जगत्] (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर है ॥१०॥
भावार्थ
यह सब चराचर जगत् और पृथिवी आदि सब लोक परमेश्वर के आधीन हैं ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(तव) (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः (प्रदिशः) प्रधानाः प्राच्याद्या महादिशः (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यः (पृथिवी) विस्तृता भूमिः (इदम्) सर्वत्र व्यापकम् (उग्र) हे तेजस्विन् (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) सर्वमध्ये दृश्यमान आकाशः (इदम्) सर्वम् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। सात्मकं जगत् (यत्) (प्राणत्) प्राणव्यापारं कुर्वत् (पृथिवीम् अनु) भूमिं प्रति ॥
विषय
प्रभु के प्रशासन में
पदार्थ
१. हे उग्र उद्गुर्णबल रुद्र! (चतस्त्रः) = चारों (प्रदिश:) = प्रधानभूत प्राची आदि दिशाएँ (तव) = आपकी ही स्वभूत हैं। (द्यौः) = वह प्रकाशमय स्वर्गलोक भी (तव) = आपके हो वश में है। (पृथिवी) = यह पृथिवीलोक भी (तव) = आपका ही स्वभूत है। (इदम्) = यह (उरु) = विस्तीर्ण (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष भी (तव) = आपके ही अधीन है। २. (इदं सर्व आत्मन्बत्) = भोक्तरूप आत्मा से अधिष्ठित ये सब शरीरसमूह (तव) = आपके ही प्रशासन में हैं। (पृथिवीम् अनु) = पृथिवी को लक्ष्य करके, अर्थात् इस पृथिवी पर (यत् प्राणत्) = जो प्राण ले रहा है, वह सब आपके ही प्रशासन में है।
भावार्थ
सब ब्रह्माण्ड व सब प्राणी प्रभु के प्रशासन में ही चल रहे हैं।
भाषार्थ
(उग्र) हे उग्र१ अर्थात् तेजस्विन् ! (चतस्रः प्रदिशः) चारों फैली हुई दिशाएँ (तव) तेरी हैं, (द्यौः) द्युलोक (तव) तेरा है, (पृथिवी तव) पृथिवी तेरी है, (इदम्, उरु, अन्तरिक्षम्, तव) यह विस्तृत अन्तरिक्ष तेरा है, अर्थात् इन सब का तू स्वामी है। (इदम्, सर्वम्, आत्मन्वत्) यह सब जगत् तेरी सत्ता के कारण सात्मक हो रहा है, और जो (पृथिवीम्, अनु) पृथिवी पर रहने वाला प्राणी (प्राणत्) प्राणव्यापार कर रहा है वह भी (तव) तेरा है।
टिप्पणी
[यह सब जोकि दृश्यमान और अदृष्ट जगत् है, उस में तु आत्मरूप में विद्यमान है, इसलिये वह सात्मक हुआ-हुआ है]। [१. नियमों के पालन कराने में उग्ररूप। परमेश्वर ने जो नियम संसार चालन के लिये, तथा हमारे जीवनों के लिये, निश्चित किये हुए हैं, उन के विपरीत चलने पर परमेश्वर हमें दण्डित करता है, अतः वह उग्र है।]
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे (उग्र) सर्वशक्तिमन् ! (चतस्रः प्रदिशः तव) चारों दिशाएं तेरी हैं। (द्यौः तव) यह द्यौ तेरी है। (पृथिवी तव) यह पृथ्वी तेरी है। (इदम् उरु अन्तरिक्षम्) यह विशाल अन्तरिक्ष भी (तव) तेरा ही है। (इदं सर्वम्) यह सब (आत्मन्वत्) चेतन आत्मा से युक्त (यत्) जो (पृथिवीम् अनु प्राणत्) पृथिवी पर जीवन धारण कर रहा है यह सब (तव) तेरा ही है।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘तव द्यौः तवेदमुग्रो’ (च०) ‘ययेजदधिभूम्याम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
Yours are these four quarters of space. The heaven is yours, the earth is yours, and yours is this vast refulgent region of light. Yours is all this that lives as soul in body, which breathes and lives on earth.
Translation
Thine are the four directions, thine the heaven, the earth, thine, O formidable one, this wide atmosphere, thine is all this that has life (atman), that is breathing upon (anu) the earth.
Translation
The four directions are within the control of this fire and similarly are within the its control the solar system and grand earth. Within its control exists vast tremendous firmament and fall within the jurisdiction of its control all that is conscious and that which breathes life on this earth.
Translation
Thine the four regions, Thine are earth and heaven, Thine Omnipotent God, this vast firmament between them; Thine is everything with soul and breath here on the surface of the earth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(तव) (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः (प्रदिशः) प्रधानाः प्राच्याद्या महादिशः (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यः (पृथिवी) विस्तृता भूमिः (इदम्) सर्वत्र व्यापकम् (उग्र) हे तेजस्विन् (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) सर्वमध्ये दृश्यमान आकाशः (इदम्) सर्वम् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। सात्मकं जगत् (यत्) (प्राणत्) प्राणव्यापारं कुर्वत् (पृथिवीम् अनु) भूमिं प्रति ॥
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