अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
अस्त्रा॒ नील॑शिखण्डेन सहस्रा॒क्षेण॑ वा॒जिना॑। रु॒द्रेणा॑र्धकघा॒तिना॒ तेन॒ मा सम॑रामहि ॥
स्वर सहित पद पाठअस्त्रा॑ । नील॑ऽशिखण्डेन । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षेण॑ । वा॒जिना॑ । रु॒द्रेण॑ । अ॒र्ध॒क॒ऽघा॒तिना॑ । तेन॑ । मा । सम् । अ॒रा॒म॒हि॒ ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्त्रा नीलशिखण्डेन सहस्राक्षेण वाजिना। रुद्रेणार्धकघातिना तेन मा समरामहि ॥
स्वर रहित पद पाठअस्त्रा । नीलऽशिखण्डेन । सहस्रऽअक्षेण । वाजिना । रुद्रेण । अर्धकऽघातिना । तेन । मा । सम् । अरामहि ॥२.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(अस्त्रा) प्रकाश करनेवाले, (नीलशिखण्डेन) नीलों [निधियों] के पहुँचानेवाले, (सहस्राक्षेण) सहस्रों कर्मों में दृष्टिवाले (वाजिना) बलवान् (अर्धकघातिना) हिंसकों के मारनेवाले (तेन) उस (रुद्रेण) रुद्र [दुःख नाशक परमात्मा] के साथ (मा सम् अरामहि) हम समर [युद्ध] न करें ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य स्वयंप्रकाशमान, सर्वहितकारी, महाबली परमात्मा की आज्ञा में रहकर सदा सुखी रहे ॥७॥
टिप्पणी
७−(अस्त्रा) अस दीप्तौ-तृन्, इडभावः। प्रकाशमानः (नीलशिखण्डेन) अ० २।२७।६। णीञ् प्रापणे-रक्, रस्य लः। नीयते प्राप्यते स नीलो निधिः। शिख शिखि गतौ-अण्डन्। निधीनां शिखण्डः प्राप्तिर्यस्मात् तेन। निधीनां प्रापकेण (सहस्राक्षेण) म० ३। सहस्रेषु कर्मसु दृष्टियुक्तेन (वाजिना) बलवता (रुद्रेण) म० ३। दुःखनाशकेन परमात्मना (अर्धकघातिना) अर्द हिंसायाम्-ण्वुल्, दस्य धः+हन हिंसागत्योः णिनि। हनस्तोऽचिण्णलोः पा० ७।३।३२। इति तत्वम्। हो हन्तेर्ञ्णिन्नेषु। पा० ७।३।५४। इति घत्वम्। अर्दकानां हिंसकानां नाशकेन (तेन) प्रसिद्धेन (मा सम् अरामहि) ऋ गतौ-माङि लुङि रूपम्। समो गम्यृच्छिप्रच्छि०। पा० १।३।२९। इत्यात्मनेपदम्। सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च। पा० ३।१।५६। इति च्लेरङादेशः। समरं युद्धं न करवाम ॥
विषय
प्रभु से मेल क्यों?
पदार्थ
१. (अस्त्रा) = [अस् दीसौ तन] दीप्तिवाले, (नीलशिखण्डेन) = [नी प्रापणे, नीलः निधिः, शिखण्ड: प्राप्ति:, शिख गतौ] निधियों को प्राप्त करानेवाले (सहस्त्राक्षेण) = हज़ारों आँखोवाले-सर्वद्रष्टा, (वाजिना) = शक्तिशाली, (रुद्रेण) = दुःखों के द्रावक, (अर्धकघातिना) = अधूरेपन को नष्ट करनेवाले पूर्णता व सफलता को प्राप्त करानेवाले (तेन) = इस प्रभु से हम (मा सम् अरामहि) = [समर] लड़ाई करनेवाले न हों-प्रभु के साथ हम एक बननेवाले हों।
भावार्थ
जितना-जितना हमारा प्रभु से मेल होगा, उतना-उतना हमारा जीवन दीस बनेगा, हम निधि-सम्पन्न बनेंगे, विस्तृत दृष्टिवाले, शक्तिशाली, दु:खरहित व पूर्णता को प्राप्त करनेवाले बनेंगे।
भाषार्थ
(अस्त्रा) वज्र फैंकने वाले, (नीलशिखण्डेन) नीलमेघरूपी केशसंनिवेश वाले, (सहस्राक्षेण) हजारों का क्षय करने वाले, (वाजिना) शक्तिशाली विद्युद्देव के सदृश विद्यमान, (अर्धकघातिना) धन की वृद्धि करने वाले का हनन करने वाले, (रुद्रेण) रुलाने वाले (तेन) उस परमेश्वर के साथ (मा समरामहि) हम समर-भावना वाले न हों, उस के नियमों का उल्लंघन१ करने वाले न हों।
टिप्पणी
[मन्त्र में लुप्तोपमा है। विद्युद् देव वर्षाकाल में वज्र फैंकता है। नीले [अर्थात् घने मेघ मानो उसके केश संनिवेश है, वह हजारों का क्षय करने वाला है। वाजिना= वाजः बलनाम (निघं० २।९) तद्युक्तेन। परमेश्वर भी विद्युद्-देव के सदृश महाबली है। वह उस का घात करता है जोकि सूद् द्वारा निजधन की वृद्धि करता, और निजधन को परोपकार आदि धार्मिक कार्यों में व्यय नहीं करता। "कीकट" शब्द की व्याख्या में, निरुक्तकार यास्क ने निम्नलिखित मन्त्र, इस भावना को प्रकट करने के लिये उपस्थित किया है (निरुक्त ६।६।३२) यथा– किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुह्रे न तपन्ति घर्मम्। आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन्रन्धया नः॥ (ऋ० ३।५३।१४) इस मन्त्र की व्याख्या में निरुक्त में कहा है कि "मगन्द, कुसीदी, माङ्गोन्दो मामागमिष्यतीति च ददाति, तदपत्यं प्रमगन्दः, अत्यन्त कुसोदिकुलीनः। ऐसे व्यक्ति को "नैचाशाख" कहा है, अर्थात् नीचकुल वाला। ऐसे व्यक्ति को धन से च्युत करने के लिये प्रार्थना की गई है 'आ नो भर वेद (धनम्)। आभर = आहर। अर्धक= अर्ध, धनस्य वृद्धि करोतीति; ऋधु वृद्धौ] अर्धम्, अर्द्धम्= "ऋघ्नोतेर्वा स्यात्, ऋद्धतमोविभागः" (निरुक्त ३।४।२०)। या समरामहि = “मा संगच्छामहै, आर्ता मा भूमेत्यर्थः। ऋ गतौ, अस्मात् माङि लुङि “समोगमृच्छि इति आत्मनेपदम्। “सतिशास्त्यर्तिभ्यश्च" इति च्लेः अङ् (सायण)]। [१. राजा द्वारा निर्दिष्ट नियमों का उल्लंघन करना मानो उस के साथ समर अर्थात् युद्ध करना है।]
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
(नीलशिखण्डेन) नील केश या कल्गी वाले (वाजिना) वेगवान् (अस्त्रा) बाण आदि फेंकने वाले एक योद्धा के समान भयंकर (सहस्राक्षेण) हज़ारों आंखों वाले (अर्धकघातिना) इस समृद्ध संसारबन्धन को सहसा मार डालने वाले, प्रति भयंकर (रुद्रेण) रुद्र से हम (मा) कभी न (सम् अरामहि) जा लड़ें। ‘सहस्राक्ष’ जैसे—‘रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं’ (११। २३) ‘अस्त्रा’—‘मयैवेते निहताः पूर्वमेव’ (११। २३) ‘नील-शिखण्ड’—‘स्थाने हृषीकेश’ (११। ३६) ‘रुद्र’—को भवानुग्ररूपः (११। ३१) ‘वाजिन्’ – ‘लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात्’। ‘'अर्धकघातिन्’—कालोऽस्मिलोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान् समार्हतुमिह प्रवृत्तः।
टिप्पणी
(तृ०) ‘अध्वगघातिना’ इति काठ० सं०। इति पेट० लाक्षणिकानुमितः पाठः। ‘समरामसि’, ‘अध्वगघातिना’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
Let us never try to war upon Rudra, the archer, lord of dark clouds across the skies, all-watching with a thousand eyes, all victorious lord of ultimate speed of natural evolution, and destroyer of the violent.
Translation
With the blue-locked archer, the thousand-eyed, vigorous, with Rudra, the half-smiter (?) - with him may we not come into collision samarimahi.
Translation
We, the scientists can never wage war against this dreadful fire which emits out flames, creates blue flames has multifarious effect, is most effective, and is the destroyer of mortifying forces.
Translation
Never may we contend with God, the spreader of light, the Bestower of treasures, the watcher of hundreds of our acts, the Lord of power, the Averter of suffering, and the Destroyer of the violent.
Footnote
Griffith interprets Ardhak as a demon. This explanation is illogical, as there is no history in the Vedas. The word means a violent person, अर्द हिंसायाम्.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अस्त्रा) अस दीप्तौ-तृन्, इडभावः। प्रकाशमानः (नीलशिखण्डेन) अ० २।२७।६। णीञ् प्रापणे-रक्, रस्य लः। नीयते प्राप्यते स नीलो निधिः। शिख शिखि गतौ-अण्डन्। निधीनां शिखण्डः प्राप्तिर्यस्मात् तेन। निधीनां प्रापकेण (सहस्राक्षेण) म० ३। सहस्रेषु कर्मसु दृष्टियुक्तेन (वाजिना) बलवता (रुद्रेण) म० ३। दुःखनाशकेन परमात्मना (अर्धकघातिना) अर्द हिंसायाम्-ण्वुल्, दस्य धः+हन हिंसागत्योः णिनि। हनस्तोऽचिण्णलोः पा० ७।३।३२। इति तत्वम्। हो हन्तेर्ञ्णिन्नेषु। पा० ७।३।५४। इति घत्वम्। अर्दकानां हिंसकानां नाशकेन (तेन) प्रसिद्धेन (मा सम् अरामहि) ऋ गतौ-माङि लुङि रूपम्। समो गम्यृच्छिप्रच्छि०। पा० १।३।२९। इत्यात्मनेपदम्। सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च। पा० ३।१।५६। इति च्लेरङादेशः। समरं युद्धं न करवाम ॥
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