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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    48

    मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ अर्भ॒कं मा नो॒ वह॑न्तमु॒त मा नो॑ वक्ष्य॒तः। मा नो॑ हिंसीः पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॒ स्वां त॒न्वं रुद्र॒ मा री॑रिषो नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । म॒हान्त॑म् । उ॒त । मा । न॒: । अ॒र्भ॒कम् । मा । न॒: । वह॑न्तम् । उ॒त । मा । न॒: । व॒क्ष्य॒त: । मा । न॒: । हिं॒सी॒: । पि॒तर॑म् । मा॒तर॑म् । च॒ । स्वाम् । त॒न्व᳡म् । रु॒द्र॒ । मा । रि॒रि॒ष॒: । न॒: ॥२.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा नो वहन्तमुत मा नो वक्ष्यतः। मा नो हिंसीः पितरं मातरं च स्वां तन्वं रुद्र मा रीरिषो नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । महान्तम् । उत । मा । न: । अर्भकम् । मा । न: । वहन्तम् । उत । मा । न: । वक्ष्यत: । मा । न: । हिंसी: । पितरम् । मातरम् । च । स्वाम् । तन्वम् । रुद्र । मा । रिरिष: । न: ॥२.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (रुद्र) हे रुद्र ! [ज्ञानदाता परमेश्वर] (मा) न तो (नः) हमारे (महान्तम्) पूजनीय [वयोवृद्ध वा विद्यावृद्ध] को (उत) और (मा)(नः) हमारे (अर्भकम्) बालक को, (मा)(नः) हमारे (वहन्तम्) ले चलते हुए [युवा] को (उत) और (मा)(नः) हमारे (वक्ष्यतः) भावी ले चलनेवालों [होनहार सन्तानों] को (मा)(नः) हमारे (पितरम्) पालनेवाले पिता को (च) और (मातरम्) मान करनेवाली माता को (हिंसीः) मार, और (मा)(नः) हमारे (स्वाम्) अपने ही (तन्वम्) शरीर को (रीरिषः) नाश कर ॥२९॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा की प्रार्थना करते हुए शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके अपने सब सम्बन्धियों की और अपनी रक्षा करें ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१।११४।७। तथा यजुर्वेद-अ० १६। म० १५ ॥

    टिप्पणी

    २९−(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (महान्तम्) पूजनीयम्। वयोवृद्धं विद्यावृद्धं वा (अर्भकम्) अ० १।२७।३। अर्भकपृथुकपाका वयसि। उ० ५।५३। ऋधु वृद्धौ-वुन्, धस्य भः। बालकम् (वहन्तम्) वह प्रापणे-शतृ। वहनशीलं युवानम् (सत्) अपि च (वक्ष्यतः) लृटः सद्वा। पा० ३।३।११४। वह प्रापणे- लृटः स्य-शतृ। भविष्यति काले वहनशीलान् (हिंसीः) माङि लुङि रूपम्। हिन्धि (पितरम्) पालकं जनकम् (मातरम्) मानप्रदां जननीम् (स्वाम्) स्वकीयाम् (तन्वम्) शरीरम् (रुद्र) म० ३। हे ज्ञानप्रद (रीरिषः) अ० ५।३।८। जहि (नः) अस्माकम्। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    पूर्ण जीवन

    पदार्थ

    १.हे प्रभो! (न:) = हमारे (महान्तम्) = घर में बड़े व्यक्ति को (मा रीरिष:) = मत हिंसित कीजिए उत और (न:) = हमारे (अर्भकम्) = छोटे को भी (मा) = मत मारिए। (न:) = हमारे (वहन्तम्) = गृहभार का वहन करनेवाले गृहपति को मत नष्ट कीजिए और (न:) = हमारे (वक्ष्यत:) = समीप-भविष्य में भार वहन करनेवाले युवक को भी (मा) = मत हिंसित कीजिए। २. (न:) = हमारे (पितरम्) = पिता (मातरं च) = व माता को (मा हिंसी:) = मत हिंसित कीजिए। हे (रुद्र) = सब दुःखों के द्रावक प्रभो! (न:) = हमारे (स्वा तन्वम्) = इस अपने शरीर को (मा) [रीरिष:] = मत नष्ट कीजिए।

    भावार्थ

    हम सब गृहवासी 'रुद्र' प्रभु का स्मरण करें और पूर्ण आयुष्य को प्राप्त होनेवाले हों|

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    भाषार्थ

    (मा)(नः) हमारे (महान्तम्) बृद्ध पुरुष की, (उत) और (मा नः अभक्रम्) न हमारे शिशु की, (मा नः वहन्तम्) न हमारे गृह-भार का वहन करने वाली की, (उत मा नः वक्ष्यतः) और न जो कि हमारे गृह-भार का वहन करेगा उस की, (मा नः पितरम् मातरम् च) न हमारे पिता और माता की (हिंसीः) हिंसा कर, (रुद्र) हे पापियों को रुलाने वाले ! (नः स्वाम् तन्वम्) हमें दी हुई अपनी ही तनू की (मा रीरिषः) न हिंसा कर।

    टिप्पणी

    [वहन्तम्, वक्ष्यतः = अथवा शकट का वहन करने वाले और जो भविष्य में शकट का वहन करेगा उस बैल की हिंसा न कर। स्वाम् तन्वम्= हे रुद्र! मुझे जो तनू तू ने दी है वह तो तेरी ही तनू है, उस अपनी तनू की हिंसा न करे]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे रुद्र ! (नः महान्तं मा हिंसीः) हमारे महान्, वृद्ध पुरुष को मत मार, पीड़ा मत दे। (नः अर्भकं मा) हमारे बच्चे को भी पीड़ा मत दे। (नः बृहन्तम् मा) हमारे कुटुम्ब का भार उठाने वाले को पीड़ा मत दे। (उत नः वक्ष्यतः मा) हमारे भविष्यत् में भार अपने ऊपर लेने हारे नवयुवकों को भी पीड़ा मत दे। (नः पितरं मातरं च मा हिंसीः) हमारे पिता और माता को भी मत मार। हे रुद्र ! (नः स्वां तन्वं मा रीरिषः) हमारी अपनी देह को भी विनाश न कर, पीड़ित न कर।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘मा नो वहन्तमुत मा न उक्षितम्’ (तृ०) ‘मा नो क्धीः’ ‘पितरं मोत मातरं’ इति ऋ०, यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    O Rudra, hurt not our seniors, hurt not our child, hurt not him that bears that responsibility of the home and family, hurt not him that would bear the responsibility of the home and family, hurt not our father and our mother, and pray do not hurt our own body and mind. Pray be kind and gracious to all of us. Our body and mind is your own, your gift.

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    Translation

    Not our great one, not our small, not our carrying one, and not those that will carry, not our father and mother do than harm, our own self (tan). Rudra do not injure.

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    Translation

    May not this fierce fire (by Gods grace) harm among us the elders, the youngsters our bearers and our supporters. May not it harm our father and mother and may not harm to our bodies.

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    Translation

    O God, harm Thou not our elders nor our children, not one who bears us, not our future bearers. Injure no sire among us, harm no mother. Forbear to injure our own bodies!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (महान्तम्) पूजनीयम्। वयोवृद्धं विद्यावृद्धं वा (अर्भकम्) अ० १।२७।३। अर्भकपृथुकपाका वयसि। उ० ५।५३। ऋधु वृद्धौ-वुन्, धस्य भः। बालकम् (वहन्तम्) वह प्रापणे-शतृ। वहनशीलं युवानम् (सत्) अपि च (वक्ष्यतः) लृटः सद्वा। पा० ३।३।११४। वह प्रापणे- लृटः स्य-शतृ। भविष्यति काले वहनशीलान् (हिंसीः) माङि लुङि रूपम्। हिन्धि (पितरम्) पालकं जनकम् (मातरम्) मानप्रदां जननीम् (स्वाम्) स्वकीयाम् (तन्वम्) शरीरम् (रुद्र) म० ३। हे ज्ञानप्रद (रीरिषः) अ० ५।३।८। जहि (नः) अस्माकम्। अन्यद्गतम् ॥

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