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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    75

    भव॑ राज॒न्यज॑मानाय मृड पशू॒नां हि प॑शु॒पति॑र्ब॒भूथ॑। यः श्र॒द्दधा॑ति॒ सन्ति॑ दे॒वा इति॒ चतु॑ष्पदे द्वि॒पदे॑ऽस्य मृड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भव॑ । रा॒ज॒न् । यज॑मानाय । मृ॒ड॒ । प॒शू॒नाम् । हि । प॒शु॒ऽपति॑: । ब॒भूथ॑ । य: । श्र॒त्ऽदधा॑ति । सन्ति॑ । दे॒वा: । इति॑ । चतु॑:ऽपदे । द्वि॒ऽपदे॑ । अ॒स्य॒ । मृ॒डे॒ ॥२.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भव राजन्यजमानाय मृड पशूनां हि पशुपतिर्बभूथ। यः श्रद्दधाति सन्ति देवा इति चतुष्पदे द्विपदेऽस्य मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भव । राजन् । यजमानाय । मृड । पशूनाम् । हि । पशुऽपति: । बभूथ । य: । श्रत्ऽदधाति । सन्ति । देवा: । इति । चतु:ऽपदे । द्विऽपदे । अस्य । मृडे ॥२.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (भव) हे भव ! [सुखोत्पादक] (राजन्) राजन् ! [परमेश्वर] (यजमानाय) यजमान [श्रेष्ठ कर्म करनेवाले] को (मृड) सुख दे, (हि) क्योंकि (पशूनाम्) दृष्टिवाले जीवों की [रक्षा के लिये] (पशुपतिः) दृष्टिवाले [जीवों] का रक्षक (बभूथ) तू हुआ है। (यः) जो [पुरुष] (श्रद्दधाति) श्रद्धा रखता है कि “देवाः सन्ति इति [परमेश्वर के] उत्तम गुण हैं,” (अस्य) उसके (द्विपदे) दोपाये और (चतुष्पदे) चौपाये को (मृड) तू सुख दे ॥२८॥

    भावार्थ

    सर्वरक्षक परमेश्वर श्रद्धालु सत्पुरुष को उत्तम मनुष्य आदि दोपायों और गौ आदि चौपायों की बहुतायत से सुखी रखता है ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(भव) म० ३। हे सुखोत्पादक (राजन्) हे सर्वशासक (यजमानाय) देवपूजादिकर्त्रे (मृड) सुखं देहि (पशूनाम्) दृष्टिमतां जीवानां रक्षणायेति शेषः (हि) यस्मात् कारणात् (पशुपतिः) दृष्टिमतां पालकः (बभूथ) इडभावः। बभूविथ (यः) पुरुषः (श्रद्दधाति) श्रद्धां धारयति। विश्वसिति (सन्ति) भवन्ति (देवाः) दिव्यगुणाः परमेश्वरस्य (इति) वाक्यसमाप्तौ (चतुष्पदे) पादचतुष्टयोपेताय गवाश्वादिप्राणिने (द्विपदे) पादद्वयोपेताय मनुष्यादये (अस्य) श्रद्धाधारकस्य पुरुषस्य (मृड) ॥

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    विषय

    श्रद्धा, निष्पक्षता व सुख

    पदार्थ

    १. हे (भव) = सर्वोत्पादक! (राजन्) = सर्वशासक प्रभो! (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (मृड) = आप सुख दीजिए। आप (हि) = निश्चय से (पशूनां पशुपति: बभूथ) = सब पशुओं [प्राणियों] के रक्षक व स्वामी हैं। २. (य:) = जो (इति श्रदधाति) = इसप्रकार विश्वास रखता है कि (देवा: सन्ति) = आपकी दिव्यशक्तियाँ सर्वत्र सत्तावाली हैं, (अस्य) = इस श्रद्धालु के (द्विपदे) = दो पाँववाले मनुष्यों के लिए तथा (चतुष्पदे) = चार पाँववाले "गौ, अश्व, अजा, अवि' आदि पशुओं के लिए (मृड) = सुख दीजिए। प्रभुशक्तियों की सार्वत्रिक सत्ता में विश्वास करनेवाला व्यक्ति पाप से बचता है और परिणामत: प्रभुकृपा का पात्र होता है।

    भावार्थ

    वे सर्वोत्पादक, सर्वशासक प्रभु यज्ञशील पुरुषों का रक्षण करते हैं। प्रभुशक्ति की सार्वत्रिक सत्ता का विश्वासी मनुष्य निष्पाप व सुखी जीवनवाला बनता है।

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    भाषार्थ

    (भव राजन्) हे सृष्ट्युत्पादक जगत् के राजा ! (यजमानाय) यज्ञ कर्म करने वाले को (मृड) सुखी कर, (हि) यतः (पशूनाम्) प्राणियों का (पशुपतिः) अधिपति और रक्षक तू (बभूथ) हुआ है। (यः) जो (श्रद् दघाति) श्रद्धा रखता है (सन्ति देवाः इति) कि देव है (अस्य) इस श्रद्धालु के (चतुष्पदे) चौपायों को (द्विपदे) और दुपायों को (मृड) सुखी कर।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (राजन्) राजमान, प्रकाशमान ! हे (भव) सर्वस्त्रष्टः ! हे (मृड) सर्व लोकसुखकारक ! आप (यजमानाय) यजमान, यज्ञ करने हारे गृहस्थ के (पशूनाम्) पशुओं के (पशुपतिः) पशु-पालक (बभूथ) हो। (यः) जो पुरुष (श्रत् दधाति) इस बात को सत्य जानता है कि (देवाः सन्ति इति) देवगण, दिव्य पदार्थ, तेजस्वी पदार्थ शक्तिशाली होते हैं (अस्य) उसके (द्विपदे चतुष्पदे मृड) मनुष्यों और पशुओं सब को सुखी कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    O Bhava, ruler of earth and heaven and the middle regions, be kind and gracious to the yajamana, you are the ruler and protector of all the living forms of existence. Whoever has faith that the Devas, Bhava and divinities of nature and humanity, are there and pervasive, be kind and gracious to him for his people and for his cattle wealth.

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    Translation

    O king Bhava, be gracious to the sacrificer, for thou hast become cattle-lord of cattle; whoever has faith, saying "the gods are", be thou gracious to his bipeds (and) quadrupeds.

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    Translation

    This resplendent fire gives happiness to the men who perform Yajna. Really it is the masterly protector of cattles. It prereserves bipeds and quadrupeds of the man who confirms this truth that natural physical forces are existant in the world (and takes use of them through knowledge of them),

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    Translation

    O Joy-bestowing God, be kind to the virtuous. Thou art the Guardian of all living creatures. Be gracious to the quadruped and biped of the believer in the myriad merits of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(भव) म० ३। हे सुखोत्पादक (राजन्) हे सर्वशासक (यजमानाय) देवपूजादिकर्त्रे (मृड) सुखं देहि (पशूनाम्) दृष्टिमतां जीवानां रक्षणायेति शेषः (हि) यस्मात् कारणात् (पशुपतिः) दृष्टिमतां पालकः (बभूथ) इडभावः। बभूविथ (यः) पुरुषः (श्रद्दधाति) श्रद्धां धारयति। विश्वसिति (सन्ति) भवन्ति (देवाः) दिव्यगुणाः परमेश्वरस्य (इति) वाक्यसमाप्तौ (चतुष्पदे) पादचतुष्टयोपेताय गवाश्वादिप्राणिने (द्विपदे) पादद्वयोपेताय मनुष्यादये (अस्य) श्रद्धाधारकस्य पुरुषस्य (मृड) ॥

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