अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
मुखा॑य ते पशुपते॒ यानि॒ चक्षूं॑षि ते भव। त्व॒चे रू॒पाय॑ सं॒दृशे॑ प्रती॒चीना॑य ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमुखा॑य । ते॒ । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । यानि॑ । चक्षूं॑षि । ते॒ । भ॒व॒ । त्व॒चे । रू॒पाय॑ । स॒म्ऽदृशे॑ । प्र॒ती॒चीना॑य । ते॒ । नम॑: ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मुखाय ते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव। त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठमुखाय । ते । पशुऽपते । यानि । चक्षूंषि । ते । भव । त्वचे । रूपाय । सम्ऽदृशे । प्रतीचीनाय । ते । नम: ॥२.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(पशुपते) हे दृष्टिवालों के रक्षक ! (ते) तुझे (मुखाय) [हमारे] मुख के हित के लिये, (भव) हे सुख उत्पादक ! (ते) तुझे, (यानि) जो (चक्षूंषि) [हमारे] दर्शनसाधन हैं [उनके लिये]। (त्वचे) [हमारी] त्वचा के लिये (रूपाय) सुन्दरता के लिये, (संदृशे) आकार के लिये (प्रतीचीनाय) प्रत्यक्ष व्यापक (ते) तुझे (नमः) नमस्कार है ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की उपासनापूर्वक अपने मुख आदि इन्द्रियों और त्वचा आदि को उपयोगी बनाकर पुरुषार्थी होवें ॥५॥
टिप्पणी
५−(मुखाय) मुखहिताय (ते) तुभ्यम् (पशुपते) हे दृष्टिमतां रक्षक (यानि) (चक्षूंषि) दर्शनसाधनानि (भव) हे सुखोत्पादक (त्वचे) त्वचाहिताय (रूपाय) सौन्दर्याय (संदृशे) सम्यग् दर्शनीयाय आकाराय (प्रतीचीनाय) अ० ४।३२।६। प्रत्यक्षं व्यापकाय (ते) तुभ्यम् (नमः) नमस्कारः ॥
विषय
मुख आदि अंगों में प्रभुमहिमा का दर्शन
पदार्थ
१. हे (पशुपते) = सब पशुओं के रक्षक प्रभो! (ते मुखाय नमः) = आपके मुख के लिए नमस्कार करते हैं-आपसे दिये गये इस मुख के महत्त्व को समझते हुए हम इसका उचित आदर करते हैं। हे (भव) = उत्पादक प्रभो! (यानि) = जो (ते चक्षूषि) = आपकी दी हुई ये आँखे हैं, इनके लिए हम नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दिये गये (त्वचे) = त्वचा के लिए, (रूपाय) = सौन्दर्य के लिए (संदृशे) = सम्यम् दर्शन व ज्ञान के लिए तथा (प्रतीचीनाय) = अन्त:स्थित प्रत्यगात्मरूप आपके लिए (नमः) = नमस्कार करते हैं। २.(ते) = आपके इन (अंगेभ्यः) = अंगों के लिए (उदराय) = उदर के लिए नमः नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दी गई (जिह्वायै) = जिह्वा के लिए (आस्याय) = मुख के लिए-वाक्शक्ति के लिए नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दिये गये (दद्धयः) = दाँतों के लिए तथा (गन्धाय) = गन्धग्राहक नाणेन्द्रिय के लिए नमस्कार करते हैं। इनका उचित प्रयोग ही इनका आदर है।
भावार्थ
प्रभु से दिये गये मुख आदि अंगों का ठीक प्रयोग करते हुए हम प्रभु को नमस्कार करते हैं।
भाषार्थ
(पशुपते, भव) हे पशुओं के अधिपति! हे सृष्ट्युत्पादक ! (मुखाय) मुख के लिये तुझे (नमः) नमस्कार हो, (यानि चक्षूंषि) जो चक्षुएँ हैं तदर्थ (ते) तुझे नमस्कार हो। (त्वचे) त्वचा के लिये, (रूपाय) रूप के लिये, (संदृशे) सम्यक् दर्शन के लिये (प्रतीचीनाय) तेरे प्रत्यक्स्वरूप के लिये (ते नमः) तुझे नमस्कार हो।।
टिप्पणी
[के लिये = तेरी इन वस्तुओं के परिज्ञान के निमित्त। "मुखाय" आदि चतुर्थ्यन्तपदों में "ज्ञातुम्" पद का सम्बन्ध अभीष्ट प्रतीत होता है। यथा “पुष्पेभ्यो गच्छति" में "पुष्पाणि आहर्तुंगच्छति" इस अर्थ के निमित्त तुमन्नन्त "आहर्तुम्" पद का सम्बन्ध होता है। इस के लिये देखो "क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः" (अष्टा० २।३।१४)। तथा उदाहरणार्थ “फलेभ्यो याति" फलान्याहर्तुं यातीत्यर्थः। तथा "नमस्कुर्मो नृसिंहाय", नृसिंमहनुकूलयितुमित्यर्थः। एवं स्वयम्मुवे नमस्कृत्येत्यादावपि" (व्याकरण सिद्धान्त कौमुदी, भट्टोजी दीक्षित)। मुखादि के स्वरूपों के परिज्ञान के लिये, परमेश्वर की कृपा के निमित्त परमेश्वर को नमस्कार किये गए हैं। मुखादि के स्वरूप निम्न लिखित हैं: - "मुखायं" = "यस्य ब्रह्म मुखमाहुः" (अथर्व० १०।७।१९), जिस स्कम्भ का मुख है ब्रह्म अर्थात् वेद या ब्रह्मवेद, अथर्ववेद। "चक्षुंषि" = चक्षुरङ्गिरसो भवन्" (अथर्व० १०।७।१८, ३४) जिस की चक्षुएं हैं सूर्य की रश्मियां तथा सूर्य और चान्द (अथर्व० १०।७।३३)। “त्वचे"= त्वच संवरणे। समग्र जगत् की त्वक् परमेश्वर, जिसने समग्र जगत् को निज व्याप्त स्वरूप से घेरा हुआ है, जैसे कि अस्मदादि के शरीरों को त्वक् ने घेरा हुआ है, तथा वृक्षादि को उन की त्वचाएं घेरती हैं। त्वचाएं शरीर की रक्षार्थ होती हैं। परमेश्वर जगत् त्वचा न बन कर जगत् को सुरक्षित कर रहा है। रूपाय= रुपयतीति रूपम्। परमेश्वर जगत् को रूप प्रदान करता है, अतः वह “रूप” है तथा “नक्षत्राणि रूपम्" (यजु० ३१।२२) अर्थात् नक्षत्र परमेश्वर के रूप हैं। "संदृशे" = परमेश्वर के सम्यक्-दर्शन के निमित्त तथा “प्रतीचीनाय" उसके प्रत्यगात्म-स्वरूप के परिज्ञान के लिए परमेश्वर को नमस्कार है।]
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे पशुपते ! जीवों के स्वामिन् ! परमात्मन् ! (ते मुखाय नमः) तेरे मुख को नमस्कार है। हे (भव) सर्वोत्पादक ईश्वर ! (ते यानि चक्षूंषि) तेरी जो चक्षुएं हैं उनको भी नमस्कार है। (ते त्वचे नमः) तेरी त्वचा को नमस्कार है। (ते) तेरे (संदृशे) सम्यग्दर्शन रूप (प्रतीचीनाय) प्रत्यक् आत्मस्वरूप (रूपाय) रूप, कान्ति, तेज के लिये (नमः) नमस्कार है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
O Pashupati, lord of living forms, O Bhava, lord of existence and creation, homage of worship to you, to your face as the universe is, your eyes that the infinite stars are. Salutations to you, beautiful and beatific cover of existence as you are, and salutations to you for your direct manifestation in the universe.
Translation
To thy face, O lord of cattle: the eyes that thou hast, O Bhava; to (thy) skin, form, aspect, to thee standing opposite (be) homage.
Translation
We express our praises for this cattle-protecting fire for its that power which works in the mouth of all, for its that power which works in the eyes of all, which works in skin, which makes all see the forms and which works in the back.
Translation
O Lord of souls, homage to Thee, for the protection of our mouth. O All-creating God, homage to Thee, for all the resources of our sight. Homage to Thee, the All-pervading God, for preserving our skin, beauty and complexion!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(मुखाय) मुखहिताय (ते) तुभ्यम् (पशुपते) हे दृष्टिमतां रक्षक (यानि) (चक्षूंषि) दर्शनसाधनानि (भव) हे सुखोत्पादक (त्वचे) त्वचाहिताय (रूपाय) सौन्दर्याय (संदृशे) सम्यग् दर्शनीयाय आकाराय (प्रतीचीनाय) अ० ४।३२।६। प्रत्यक्षं व्यापकाय (ते) तुभ्यम् (नमः) नमस्कारः ॥
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