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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    99

    पु॒रस्ता॑त्ते॒ नमः॑ कृण्म उत्त॒राद॑ध॒रादु॒त। अ॑भीव॒र्गाद्दि॒वस्पर्य॒न्तरि॑क्षाय ते॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रस्ता॑त् । ते॒ । नम॑: । कृ॒ण्म॒: । उ॒त्त॒रात् । अ॒ध॒रात् । उ॒त । अ॒भि॒ऽव॒र्गात् । दि॒व: । परि॑ । अ॒न्तरि॑क्षाय । ते॒ । नम॑: ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरस्तात्ते नमः कृण्म उत्तरादधरादुत। अभीवर्गाद्दिवस्पर्यन्तरिक्षाय ते नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरस्तात् । ते । नम: । कृण्म: । उत्तरात् । अधरात् । उत । अभिऽवर्गात् । दिव: । परि । अन्तरिक्षाय । ते । नम: ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (ते) तुझे (पुरस्तात्) आगे से, (उत्तरात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (नमः) नमस्कार, (ते) तुझे (दिवः) आकाश के (अभीवर्गात् परि) अवकाश से (अन्तरिक्षाय) अन्तरिक्ष लोक को जानने के लिये (नमः कृण्मः) हम नमस्कार करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर को सर्वत्र व्यापक जानकर विद्या की प्राप्ति से सब दिशाओं और अन्तरिक्ष के पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके अपनी रक्षा करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(पुरस्तात्) अग्रे वर्तमानाद् देशात् (ते) तुभ्यम् (उत्तरात्) उपरिस्थानात् (अधरात्) अधःस्थानात् (उत) अपि च (अभीवर्गात्) अभि+वृजी वर्जने-घञ्। उपसर्गस्य घव्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। अभितो वृज्यते गृहादिभिः परिच्छिद्यते यः। अवकाशात् (दिवः) आकाशस्य (परि) (अन्तरिक्षाय) अन्तरिक्षं ज्ञातुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते

    पदार्थ

    १. हे रुद्र ! (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (ते नमः कृण्म:) = आपके लिए नमस्कार करते हैं, (उत) = तथा (उत्तरात्) = उत्तर दिशा में आपके लिए नमस्कार करते हैं। २. (अभीवर्गात्) = [अभित:वृज्यते गृहादिरूपेण परिच्छिद्यते इति अभीवर्ग:. अवकाशात्मक आकाश:] अवकाशात्मक आकाश से व (दिवः परि) = द्योतमान आकाश से ऊपर के भाग में (अन्तरिक्षाय) = नियन्तृरूपेण सबके अन्दर अवस्थित [अन्तरा क्षान्ताय] (ते नम:) = आपके लिए नमस्कार करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सब ओर है। गृहादि से परिच्छिन्न आकाश से, द्योतमान आकाश से भी परे व सबके अन्दर नियन्तरूपेण वे निवास कर रहे हैं। उनके लिए हम नतमस्तक होते हैं।

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    भाषार्थ

    (पुरस्तात्) पूर्वदिशा में वर्तमान (ते) तेरे लिये (नमः कृण्मः) नमस्कार हम करते हैं, (उत्तरात्) उत्तर दिशा में (उत) तथा (अधरात्) दक्षिण दिशा में वर्तमान तेरे लिये नमस्कार करते हैं। (अभीवर्गात्) सब ओर अन्धकार से वर्जित (दिवः) द्युलोक से (परि) ऊपर वर्तमान तथा (अन्तरिक्षाय) अन्तराल में वर्तमान (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार हम करते हैं।

    टिप्पणी

    [उत्तरात् आदि = सप्तम्यर्थे "आतिः" प्रत्ययः ("उत्तराधरदक्षिणाद् आतिः” अष्टा० ५।३।३४)। अभीवर्गात्= अभि (अमितः) वर्गात्, वर्जनात् (वृजी वर्जने)। दिवः परि= "पञ्चम्याः परावध्यर्थे" (अष्टा० ८।३।५१)। अन्तरिक्षाय= "अन्तरा क्षान्ताय नियन्तृत्वेन अवस्थिताय" (सायण)। अथवा अन्तरिक्षस्वामिने, अर्श आद्यच (अष्टा० ५।२।१-२७)]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! (ते) तुझे (पुरस्तात्) आगे से (उत्तरात्) से (अधरात्) नीचे से (उत) भी (नमः कृण्मः) नमस्कार करते हैं। (अभीवर्गात्) सब तरफ़ से घेरने वाले अन्तरिक्ष और (दिवः परि) द्यौलोक से भी परे विद्यमान (अन्तरिक्षाय) अन्तर्यामी, सर्वव्यापक तुझको (नमः) नमस्कार है। नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तुते सर्वत एव सर्व। अनन्तवीर्यामित विक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥ गीता ११। ४०॥ आगे, पीछे और सब ओर से तुझे नमस्कार है। सर्वव्यापक होने से तेरा नाम ‘सर्व’ है। तेरा अनन्त वीर्य और पराक्रम है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    We do you homage from the front, from above and below, salutations to you from all round over the heavens of light and to you as the entire space itself.

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    Translation

    We pay thee homage in front, above, also below; forth from the sphere of the sky, homage (be) to thine atmosphere.

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    Translation

    We express our appreciation for this fire coming from east, coming from north and coming from beneath. We praise it coming from the void of space and atmospheric region.

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    Translation

    O God, we offer reverence to Thee from eastward, and from north and south, to thee, the All-pervading, beyond the sky and All-encompassing atmosphere!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(पुरस्तात्) अग्रे वर्तमानाद् देशात् (ते) तुभ्यम् (उत्तरात्) उपरिस्थानात् (अधरात्) अधःस्थानात् (उत) अपि च (अभीवर्गात्) अभि+वृजी वर्जने-घञ्। उपसर्गस्य घव्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। अभितो वृज्यते गृहादिभिः परिच्छिद्यते यः। अवकाशात् (दिवः) आकाशस्य (परि) (अन्तरिक्षाय) अन्तरिक्षं ज्ञातुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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