अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
अङ्गे॑भ्यस्त उ॒दरा॑य जि॒ह्वाया॑ आ॒स्याय ते। द॒द्भ्यो ग॒न्धाय॑ ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गे॑भ्य: । ते॒ । उ॒दरा॑य । जि॒ह्वायै॑ । आ॒स्या᳡य । ते॒ । द॒त्ऽभ्य: । ग॒न्धाय॑ । ते॒ । नम॑: ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गेभ्यस्त उदराय जिह्वाया आस्याय ते। दद्भ्यो गन्धाय ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गेभ्य: । ते । उदराय । जिह्वायै । आस्याय । ते । दत्ऽभ्य: । गन्धाय । ते । नम: ॥२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (ते) तुझे (अङ्गेभ्यः) [हमारे] अङ्गों के हित के लिये, (उदराय) उदर के हित के लिये, (ते) तुझे (जिह्वायै) [हमारी] जिह्वा के हित के लिये और (आस्याय) मुख के हित के लिये (ते) तुझे (दद्भ्यः) [हमारे] दाँतों के हित के लिये और (गन्धाय) गन्ध ग्रहण करने के लिये (नमः) नमस्कार है ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य अपने अङ्गों को यथावत् उपकारी बनाकर परमेश्वर की भक्ति करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(अङ्गेभ्यः) अस्माकं शरीरावयवेभ्यः (ते) तुभ्यम् (उदराय) उदरहिताय (आस्याय) मुखहिताय (ते) तुभ्यम् (दद्भ्यः) दन्तानां हिताय (गन्धाय) गन्धं ग्रहीतुम् (ते) तुभ्यम् (नमः) नमस्कारः ॥
विषय
मुख आदि अंगों में प्रभुमहिमा का दर्शन
पदार्थ
१. हे (पशुपते) = सब पशुओं के रक्षक प्रभो! (ते मुखाय नमः) = आपके मुख के लिए नमस्कार करते हैं-आपसे दिये गये इस मुख के महत्त्व को समझते हुए हम इसका उचित आदर करते हैं। हे (भव) = उत्पादक प्रभो! (यानि) = जो (ते चक्षूषि) = आपकी दी हुई ये आँखे हैं, इनके लिए हम नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दिये गये (त्वचे) = त्वचा के लिए, (रूपाय) = सौन्दर्य के लिए (संदृशे) = सम्यम् दर्शन व ज्ञान के लिए तथा (प्रतीचीनाय) = अन्त:स्थित प्रत्यगात्मरूप आपके लिए (नमः) = नमस्कार करते हैं। २.(ते) = आपके इन (अंगेभ्यः) = अंगों के लिए (उदराय) = उदर के लिए नमः नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दी गई (जिह्वायै) = जिह्वा के लिए (आस्याय) = मुख के लिए-वाक्शक्ति के लिए नमस्कार करते हैं। (ते) = आपसे दिये गये (दद्धयः) = दाँतों के लिए तथा (गन्धाय) = गन्धग्राहक नाणेन्द्रिय के लिए नमस्कार करते हैं। इनका उचित प्रयोग ही इनका आदर है।
भावार्थ
प्रभु से दिये गये मुख आदि अंगों का ठीक प्रयोग करते हुए हम प्रभु को नमस्कार करते हैं।
भाषार्थ
(अङ्गेभ्यः) अङ्गों के लिये, (उदराय) उदर के लिये, (जिह्वायै) जिह्वा के लिये, (आस्याय) आस्य के लिये (ते) तुझे नमस्कार हो। (ददभ्यः) दान्तों के लिये, (गन्धाय) गन्ध के लिये (ते नमः) तुझे नमस्कार हो ॥६॥
टिप्पणी
[“अङ्गेभ्यः" = “अङ्गानि यस्य यातवः" (अथर्व० १०।७।१८), यातवः अर्थात् गतिशील सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र तथा तारागण जिस विराट्-शरीर के अङ्ग हैं। तथा "एकं तदङ्गं स्कम्भस्यासदाहुः परो जनाः" (अथर्व० १०।७।२५), असद् अर्थात् अव्याकृत प्रकृति को पहुंचे हुए जन स्कम्भ का अंग कहते हैं। प्रकृति, सत्त्व-रजस्-तथा-तमस् स्वरूपा है। त्रिविधा की दृष्टि से प्रकृति को अङ्गानि भी कह सकते हैं। अंगों के सम्बन्ध में देखो, (अथर्व० १०।७।२६,२७)। “उदराय" = "यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्" (अथर्व० १०।७।३२) में अन्तरिक्ष को स्कम्भ का उदर कहा है। "जिह्वायै = "जिह्वां मधुकशामुत" (अथर्व० १०।७।१९) में मधुकशा अर्थात् मधुर वेदवाणी को परमेश्वर की जिह्वा कहा है। कशावाङ्नाम (निघं० १।११) वाणी को कशा इस लिये कहते हैं कि यह अर्थ को प्रकाशित करती है। तथा जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११) = "आस्याय" = "अग्निं यश्चक्र आस्यम् (अथर्व० १०।७।३३), स्कम्भ का आस्य है अग्नि। जैसे अग्नि हवि को खाती है वैसे आस्य अन्न को खाता है। "ददभ्यः, गन्धाय"= इन पदों द्वारा परमेश्वर की संहारक शक्तियों का वर्णन हुआ है। "ददभ्यः" वे प्राणी हैं, जोकि अपने दान्तों द्वारा प्रजा का संहार करते हैं, जैसेकि मच्छर, सांप, सिंह आदि हिंस्र प्राणी। ददभ्यः पद दान्त वाले हिंस्र प्राणियों का उपलक्षक है। गन्धाय पद भी पदमेश्वर की संहारक शक्ति का सूचक है। गन्धाय पद “गन्ध अर्दने”, अर्थात् अर्दनार्थक "गन्ध" धातु से व्युत्पन्न है। अर्दन का अर्थ है हिंसन। यथा “अर्द हिंसायाम्" (चुरादि)। दन्तुल हिंसक प्राणियों के अतिरिक्त, अदन्तुल हिंसक संख्या में अत्यधिक हैं। ये हैं रोगकीटाणु। ये रोग कीटाणु प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में प्रजा का संहार करते रहते हैं। विशेषध्येय= इन दो (५,६) मन्त्रों की व्याख्या में यह निर्देश ध्यान में रखना चाहिये कि मन्त्रों में (वे) पद परमेश्वर के अङ्गों का वर्णन नहीं करते, जिन द्वारा कि परमेश्वर को शरीरधारी मानने का भ्रम हो सके, और न इन अङ्गों के लिये नमस्कार का ही वर्णन हुआ है, अपितु इन के स्वरूपों के परिज्ञान के लिये परमेश्वर की कृपा के निमित्त परमेश्वर के प्रति नमस्कारों का वर्णन हुआ है। "ते" पद चतुर्थी विभक्ति का है, षष्ठी का नहीं]।
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! (ते अङ्गेभ्यः) तेरे अंगों को (नमः) नमस्कार है। (उदराय) तेरे उदर भाग को नमस्कार है। (ते जिह्वायै नमः) तेरी जीभ को नमस्कार है। (ते आस्याय) तेरे आस्य = मुखको नमस्कार है (ते दद्भ्यः नमः) तेरे दांतों को नमस्कार है। (ते गन्धाय नमः) तेरे गन्ध को नमस्कार है। ५, ६ मन्त्रों में मुख, चक्षु, त्वचा, रूप, उदर, जिह्वा, आस्य, दांत, गन्ध आदि नाम आने से ईश्वर का कोई शरीर नहीं सिद्ध होता, प्रत्युत वहां आलंकारिक रूप लेना उचित है जो पूर्व कई स्थानों पर दर्शा चुके हैं जैसे [ अथर्व का० ९। सू० ७ ]। मुख जैसे गीता में— यथप्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गाः विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥ आंखें जैसे—रूपं महते बहुवक्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्। रूप जैसे—नमस्पृशं दीप्तमनेकवर्णम्। नेत्र जैसे—अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्। गन्ध और रूप जैसे—पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च (अ० ७। ९) तेजश्वास्मि विभावसौ। दांत और जीभ जैसे—दंष्ट्राकरातानि च ते मुखानि (११। २५) लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान् समग्रान् वदनैर्ज्वलद्भिः। आख्याहि मेको भवानुग्ररूपो नमोऽस्तुते देववर प्रसीद॥ ११। ३०। ३॥
टिप्पणी
‘अङ्गेभ्योदराय जिह्वायास्याय’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
Salutations to you for all your universal limbs of the cosmos: for your belly as the space is, for your tongue that nature is as it proclaims your presence in action, for your mouth as it consumes old forms and materials for new creations, for your teeth and jaws as you crush things for justice and transformation, and homage to your fragrance that the flowers are.
Translation
To thy members, belly, tongue, thy mouth; to thy teeth, smell, (be) homage.
Translation
We praise and describe with appreciation the fire for it that power which works in our mouth, in our limbs, in our belly, in our organ of speech and also for the power which works in our teeth and nose.
Translation
O God, we offer homage to Thee, for the good of our limbs, belly, tongue, mouth, teeth, and smelling power.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अङ्गेभ्यः) अस्माकं शरीरावयवेभ्यः (ते) तुभ्यम् (उदराय) उदरहिताय (आस्याय) मुखहिताय (ते) तुभ्यम् (दद्भ्यः) दन्तानां हिताय (गन्धाय) गन्धं ग्रहीतुम् (ते) तुभ्यम् (नमः) नमस्कारः ॥
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