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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    52

    धनु॑र्बिभर्षि॒ हरि॑तं हिर॒ण्ययं॑ सहस्र॒घ्नि श॒तव॑धं शिखण्डिन्। रु॒द्रस्येषु॑श्चरति देवहे॒तिस्तस्यै॒ नमो॑ यत॒मस्यां॑ दि॒शी॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धनु॑: । बि॒भ॒र्षि॒ । हरि॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । स॒ह॒स्र॒ऽघ्नि । श॒तऽव॑धम् । शि॒ख॒ण्डि॒न् । रु॒द्रस्य॑ । इषु॑: । च॒र॒ति॒ । दे॒व॒ऽहे॒ति: । तस्यै॑ । नम॑: । य॒त॒मस्या॑म् । दि॒शि । इ॒त: ॥२.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धनुर्बिभर्षि हरितं हिरण्ययं सहस्रघ्नि शतवधं शिखण्डिन्। रुद्रस्येषुश्चरति देवहेतिस्तस्यै नमो यतमस्यां दिशीतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धनु: । बिभर्षि । हरितम् । हिरण्ययम् । सहस्रऽघ्नि । शतऽवधम् । शिखण्डिन् । रुद्रस्य । इषु: । चरति । देवऽहेति: । तस्यै । नम: । यतमस्याम् । दिशि । इत: ॥२.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 12
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (शिखण्डिन्) हे परम उद्योगी ! [रुद्र परमेश्वर] (हरितम्) शत्रुनाशक, (हिरण्यम्) बलयुक्त, (सहस्रघ्नि) सहस्रों [शत्रुओं] के मारनेवाले, (शतवधम्) सैकड़ों हथियारोंवाले, (धनुः) धनुष को तू (बिभर्षि) धारण करता है। (रुद्रस्य) रुद्र [दुःखनाशक परमेश्वर] का (इषुः) बाण (देवहेतिः) दिव्य [अद्भुत] वज्र (चरति) चलता रहता है, (तस्यै) उस [बाण] के रोकने के लिये (इतः) यहाँ से (यतमस्याम् दिशि) चाहे जौन-सी दिशा हो, उसमें (नमः) नमस्कार है ॥१२॥

    भावार्थ

    जैसे शूर पुरुष अनेक प्रकार के सहस्रघ्नि, शतघ्नी, शतवध आदि अस्त्र-शस्त्र बना के शत्रुओं को मारता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् परमात्मा अपने अनन्त सामर्थ्य से पापियों का नाश कर देता है। इससे हम लोग उसकी आज्ञा का उल्लङ्घन न करके उसकी शरण में रहें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(धनुः) चापम् (बिभर्षि) धारयसि (हरितम्) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् नाशने-इतन्। शत्रुनाशकम् (हिरण्ययम्) हिरण्यं रेतो वीर्यं बलम्, तेन युक्तम् (सहस्रघ्नि) भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। सहस्र+हन हिंसागत्योः-इप्रत्ययः, कित्। सहस्रशत्रुनाशकम् (शतवधम्) वधो वज्रनाम-निघ० २।२०। अनेकायुधोपेतम् (शिखण्डिन्) अ० ३७।४। शिख गतौ-अण्डन् कित्, तत इनि। हे महोद्योगिन् (रुद्रस्य) दुःखनाशकस्य (इषुः) बाणः (चरति) विचरति (देवहेतिः) अद्भुतवज्रः (तस्यै) तां निवारयितुम् (नमः) (यतमस्याम्) यस्यां कस्याम् (दिशि) दिशायाम् (इतः) अस्मात् स्थानात् ॥

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    विषय

    धनुर्धारी रुद्र

    पदार्थ

    हे (शिखण्डिन्) = [शिख गती] सर्वत्र गतिशील परमात्मन्! आप (धनुः बिभर्षि) = धनुष धारण करते हैं जो (धनुष् हरितम्) = दुष्टों का हरण करनेवाला व (हिरण्ययम्) = हिरण्य का विकारभूत, अर्थात् दीप्त है। (सहस्त्रनि) = हज़ारों को एक ही प्रयत्न से मारनेवाला है (शतवधम्) = सैकड़ों आयुधों [वध-वज्र-नि०] से युक्त है। २. (रुद्रस्य) = दुष्टों को रुलानेवाले (देवहेति:) = उस देव का हनन साधन (इषु:) = बाण (चरति) = गतिवाला होता है। (इतः) = यहाँ हमारे स्थान से (यतमस्यां दिशि) = जिस भी दिशा में यह रुद्र का इषु गतिवाला होता है, (तस्यै) = उस रुद्र के इषु के लिए नमः हम नमस्कार करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु को धनुर्धारी रुद्र के रूप में स्मरण करते हुए हम पाप से बचें और प्रभु के इषु से विद्ध किये जाने योग्य न हों

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    भाषार्थ

    (शिखण्डिन्=नीलशिखण्डिन्) हे नीलेमेघरूपी केशसंनिवेश वाले विद्युद्-देव के सदृश परमेश्वर ! (मन्त्र ७), (हरितम्) संहार करने वाले, (सहस्रघ्नि) हजारों का हनन करने वाले, (शतवधम्) सैकड़ों प्रकार की विधियों से बध करने वाले (हिरण्यम्) परन्तु परिणाम में हितकर और रमणीय (धनुः) धनुष को (बिभर्षि) तू धारण करता है। (रुद्रस्य) तुझ रुलाने वाले की, (देवहेतिः) दिव्यास्त्र रूपी (इषुः) इषु, (इतः) इस जगत् में, (यतमस्याम् दिशि) जिस दिशा में भी (चरति) किसी लक्ष्य पर चलती है (तस्यै) उस के निराकरणार्थ (नमः) तुझे नमस्कार है।

    टिप्पणी

    [शिखण्डिन्= नीलशिलण्डिन् (देखो मन्त्र ७ की व्याख्या) नीले अर्थात् काले मेघरूपी केशसंनिवेश वाला विद्युत् देव। विद्युद्-देव का धनुष् वर्षाकाल में इन्द्रधनुष के रूप में प्रकट होता है, जोकि रमणीय प्रतीत होता है, और जो महासंहारी वज्ररूपी-इषु का प्रहार करता है। इस दृष्टि से परमेश्वर और विद्युद्-देव परस्पर सदृश हैं, और दोनों ही रुद्ररूप हैं, दोनों के धनुष और इषु हैं। धनुष् तो लक्ष्य पर फैंका नहीं जाता, वह तो धानुष्क के हाथ में ही रहता है। चलाई जाती है इषु। अतः इसी इषु के वर्जनार्थ, निराकरणार्थ रुद्र को नमस्कार किया है, ताकि वह अनुकूल होकर, हम पर इषु न चलाए। "तस्यै" में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग "क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः” (अष्टा० २।३।१४) द्वारा उपपन्न हो सकता है। तस्यै नमः = तां निवारयितुं नमः कुर्मः। प्रत्येक व्यक्ति इषु के निवारण को ही चाहता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    O Rudra, lord of the blue locks of clouds and oceans of space, you wield the colourful golden bow of infinite reach that touches thousands and kills hundreds at a stroke. Homage and salutations to this thunderous blow of the divine arrow of Rudra wherever in whatever direction from here it reaches and operates.

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    Translation

    Thou bearest a yellow golden bow, a thousand-slaying, hundred weaponed, O tufted one; Rudra’s arrow goes, a godmissile ; to that be homage, in whichever direction from here.

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    Translation

    The all-pervading fire (Shikhandin) holds by it they inflictious power which may kill hundreds and thousands which is endowed with most scorching fatal heat. this weapon of fire known as the weapon of natural physical forces (if used) consume all. We accept its affectivity where ever be it working.

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    Translation

    O most active God, thou wieldest the instrument of destruction, that destroys foes, is full of power, the killer of thousands of enemies and the annihilator of hundreds of adversaries! God's shaft, His marvelous weapon is ever in action. Wherever it may be, we pay it homage.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(धनुः) चापम् (बिभर्षि) धारयसि (हरितम्) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् नाशने-इतन्। शत्रुनाशकम् (हिरण्ययम्) हिरण्यं रेतो वीर्यं बलम्, तेन युक्तम् (सहस्रघ्नि) भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। सहस्र+हन हिंसागत्योः-इप्रत्ययः, कित्। सहस्रशत्रुनाशकम् (शतवधम्) वधो वज्रनाम-निघ० २।२०। अनेकायुधोपेतम् (शिखण्डिन्) अ० ३७।४। शिख गतौ-अण्डन् कित्, तत इनि। हे महोद्योगिन् (रुद्रस्य) दुःखनाशकस्य (इषुः) बाणः (चरति) विचरति (देवहेतिः) अद्भुतवज्रः (तस्यै) तां निवारयितुम् (नमः) (यतमस्याम्) यस्यां कस्याम् (दिशि) दिशायाम् (इतः) अस्मात् स्थानात् ॥

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