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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    68

    भ॒वो दि॒वो भ॒व ई॑शे पृथि॒व्या भ॒व आ प॑प्र उ॒र्वन्तरि॑क्षम्। तस्मै॒ नमो॑ यत॒मस्यां॑ दि॒शी॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒व: । दि॒व: । भ॒व: । ई॒शे॒ । पृ॒थि॒व्या: । भ॒व: । आ । प॒प्रे॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तस्मै॑ । नम॑: । य॒त॒मस्या॑म् । दि॒शि । इ॒त: ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवो दिवो भव ईशे पृथिव्या भव आ पप्र उर्वन्तरिक्षम्। तस्मै नमो यतमस्यां दिशीतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भव: । दिव: । भव: । ईशे । पृथिव्या: । भव: । आ । पप्रे । उरु । अन्तरिक्षम् । तस्मै । नम: । यतमस्याम् । दिशि । इत: ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (भवः) भव [सुख उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर] (दिवः) सूर्य का, (भवः) भव (पृथिव्याः) पृथिवी का (ईशे) राजा है, (भवः) भव ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) आकाश को (आ पप्रे) सब ओर से पूरण किया है। (इतः) यहाँ से (यतमस्याम् दिशि) चाहे जौन-सी दिशा हो, उसमें (तस्मै) उस [भव] को (नमः) नमस्कार है ॥˜२७॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सब सूर्य आदि लोकों का स्वामी है, उसको हम सब स्थानों में नमस्कार करके अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥˜२७॥

    टिप्पणी

    २७−(भवः) म० ३। सुखोत्पादकः परमेश्वरः (दिवः) सूर्यस्य (ईशे) तलोपः। ईष्टे। राजति (पृथिव्याः) भूमेः (आ) समन्तात् (पप्रे) प्रा पूरणे-लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्। पप्रौ। पूरितवान् (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (तस्मै) (भवाय) परमेश्वराय। अन्यद् गतं पूर्ववच्च-म० १२।१४ ॥˜

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( भवः ) = सुख उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर  ( दिवः ) = सूर्य का  ( भवः ) = वही परमेश्वर  ( पृथिव्याः ) = पृथिवी का  ( ईशे ) = राजा है।  ( भव: ) = उसी परमेश्वर ने  ( उरु अन्तरिक्षम् ) = विस्तृत प्रकाश को  ( आ पप्रे ) = सब ओर से पूर्ण कर रक्खा है ।  ( इतः ) = यहाँ से  ( यतमस्यां दिशि ) = चाहे किसी भी दिशा हो उसमें व्याप्त है  ( तस्मै नमः ) = उस जगदीश्वर को हमारा नमस्कार है । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जो परमेश्वर सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्षादि लोकों का स्वामी होकर उन पर शासन कर रहा है उस सर्व दिशाओं में परिपूर्ण सुखप्रद परमेश्वर को हमारा बार-बार प्रणाम हो ।

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    विषय

    नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व

    पदार्थ

    १. (भवः) = वह सर्वोत्पादक प्रभु (दिवः ईशे) = द्युलोक का ईश है। (भव:) = वही प्रभु (पृथिव्या:) = [ईशे] पृथिवी का स्वामी है। (भवः) = सर्वजनक प्रभु ही (उरु अन्तरिक्षम्) = इस विशाल अन्तरिक्ष को (आ पप्रे) = अपने तेज से आपूरित किये हुए हैं। (तस्मै) = उस भव के लिए (इत:) = इस अपने स्थान से (यतमस्यां दिशि) = जिस भी दिशा में वे हैं, उन्हें (नम:) = नमस्कार करता हूँ।

    भावार्थ

    उस त्रिलोकी में व्याप्त त्रिलोकी के अधिपति को हम सब दिशाओं में नमस्कार करता हूँ।

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    भाषार्थ

    (भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर (दिवः) द्युलोक का (ईशे) अधीश्वर है, (भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी का अधीश्वर है, (भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ पप्रे) निज व्याप्ति से आपूरित किया हुआ है। (यतमस्याम्) जिस किसी भी (दिशा) दिशा में वह है, (इतः) यहां से (तस्मै) उसे (नमः) नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर तीनों लोकों में और सव दिशाओं में व्याप्त है। जिस किसी दिशा की ओर भी तुम मुख करके उसे नमस्कार कर सकते हो, वह तो निज व्याप्ति द्वारा सभी दिशाओं में विद्यमान है ही। आ पप्रे (लिङ् लकार)]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (भवः) सर्वोत्पादक परमात्मा (दिवः ईशे) द्यलोक को चश करता है और वही सर्वोत्पादक (भवः) भव (पृथिव्याः ईशे) पृथिवी पर भी वश कर रहा है। और वही सर्वस्रष्टा (भवः) परमेश्वर (उरु अन्तरिक्षम् आ पप्रे) विशाल अन्तरिक्ष को व्याप्त किये हुए है। (इतः यतमस्यां दिशि) इधर से वह जिस दिशा में भी है (तस्मै नमः) उसको नमस्कार है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘तस्यै’ इति बहुत्र। ‘तस्य वा पापाद् दुच्छुना काचनेहा’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    Bhava, lord of Being and Becoming, rules the heaven, Bhava rules the earth, Bhava pervades and rules the vast middle regions. Homage and salutations to him from us here wherever in whichever direction or quarter of space he be.

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    Translation

    Bhava is master (isa) of the heaven, Bhava of the earth; Bhava has filled the wide atmosphere; to him be homage, in whichever direction from here.

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    Translation

    This constructive firy substance has its control over heavenly region, it has its control over earth and it pervades vast firmament. Our praise is due to it wherever it exists.

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    Translation

    Ruler of heaven and Lord of Earth is God. He pervades the spacious air’s mid-region. Wherever He be, to Him be paid our homage.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(भवः) म० ३। सुखोत्पादकः परमेश्वरः (दिवः) सूर्यस्य (ईशे) तलोपः। ईष्टे। राजति (पृथिव्याः) भूमेः (आ) समन्तात् (पप्रे) प्रा पूरणे-लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्। पप्रौ। पूरितवान् (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (तस्मै) (भवाय) परमेश्वराय। अन्यद् गतं पूर्ववच्च-म० १२।१४ ॥˜

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ভবো দিবো ভব ঈশে পৃথিব্যা ভব আ প্রপ উর্বন্তরিক্ষম্।

    তস্মৈ নমো য়তমস্যাং দিশীতঃ।।৭৮।।

    (অথর্ব ১১।২।২৭)

    পদার্থঃ (ভবঃ) সুখ উৎপাদক পরমেশ্বর (দিবঃ) সূর্যের এবং (ভবঃ) সেই পরমেশ্বরই (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর (ঈশে) ঈশ্বর। (ভবঃ) সকলের পিতা পরমেশ্বর (উরু অন্তরিক্ষম্) এই বিশাল অন্তরিক্ষকে (আ প্রপে) সকল প্রকারে পূর্ণ করে রেখেছেন। (ইতঃ) এখান থেকে (যতমস্যাম্ দিশি) যেকোন দিক হতে (তস্মৈ নমঃ) সেই জগদীশ্বরকে আমাদের নমস্কার।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে পরমেশ্বর সূর্য, পৃথিবী, অন্তরিক্ষাদিলোকের ঈশ্বর এবং তাদের ওপর শাসন করে থাকেন, সেই সকল দিকে ব্যাপ্ত সুখপ্রদ পরমেশ্বরকে আমাদের বারংবার নমস্কার ।।৭৮।।

     

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