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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    84

    यो॒न्तरि॑क्षे॒ तिष्ठ॑ति॒ विष्ट॑भि॒तोऽय॑ज्वनः प्रमृ॒णन्दे॑वपी॒यून्। तस्मै॒ नमो॑ द॒शभिः॒ शक्व॑रीभिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्तर‍ि॑क्षे । तिष्ठ॑ति । विऽस्त॑भित: । अय॑ज्वन: । प्र॒ऽमृ॒णन् । दे॒व॒ऽपी॒यून् । तस्मै॑ । नम॑: । द॒शऽभि॑: । शक्व॑रीभि: ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योन्तरिक्षे तिष्ठति विष्टभितोऽयज्वनः प्रमृणन्देवपीयून्। तस्मै नमो दशभिः शक्वरीभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्तर‍िक्षे । तिष्ठति । विऽस्तभित: । अयज्वन: । प्रऽमृणन् । देवऽपीयून् । तस्मै । नम: । दशऽभि: । शक्वरीभि: ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (विष्टभितः) दृढ़ जमा हुआ [परमेश्वर] (अयज्वनः) यज्ञ न करनेवाले [दुर्जन] (देवपीयून्) विद्वानों के हिंसकों को (प्रमृणन्) मारता हुआ (तिष्ठति) ठहरता है। (दशभिः) दस (शक्वरीभिः) शक्तिवाली [दिशाओं] के साथ [वर्तमान] (तस्मै) उस [परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार है ॥˜२३॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा आकाश में और सब दिशा-विदिशाओं में और ऊपर-नीचे व्यापक है, सब मनुष्य उसका आश्रय लेकर दुष्ट विघ्नों और शत्रुओं का नाश करें ॥˜२३॥

    टिप्पणी

    २३−(यः) परमेश्वरः (अन्तरिक्षे) आकाशे (तिष्ठति) वर्तते (विष्टभितः) विविधं स्तभितो दृढीभूतः सन् (अयज्वनः) अ० ३।२४।२। यजेर्ङ्वनिप्। देवपूजारहितान् दुर्जनान् (देवपीयून्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकान् (तस्मै) परमेश्वराय (नमः) प्रणामः (शक्वरीभिः) अ० ३।१७।७। शक्लृ शक्तौ-वनिप्, ङीब्रेफौ। उच्चनीचदिग्विदिशाभिः सह वर्तमानायेति शेषः ॥˜

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    विषय

    'अयज्वा देवपीयु' का दण्डन

    पदार्थ

    १. (य:) = जो प्रभु (अन्तरिक्षे) = इस द्यावापृथिवी के मध्य में-अन्तरिक्ष में सर्वत्र (विष्टभित:) = स्थिर हुए-हुए (तिष्ठति) = ठहरे हैं, वे (अयज्वन:) = अयज्ञशील (देवपीयून्) = देवों के सज्जनों के हिंसक पुरुषों को (प्रमृणन्) = कुचल देते हैं। (तस्मै) = उस रुद्र प्रभु के लिए (दशभिः) = दसों (शक्वरीभि:) = कमों में शक्त अंगुलियों से (नमः) = नमस्कार हो, अर्थात् उन रुद्र के लिए हम अञ्जलिबन्धन द्वारा प्रणाम करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु आकाशवत् सर्वत्र स्थित हैं[ओम् खं ब्रह्म]। वे अयज्ञशील, देवहिंसक पुरुषों को पीड़ित करते हैं। हम प्रभु को प्रणाम करते हुए यज्ञशील व सज्जन-सेवक ही बनें।

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    भाषार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (विष्टभितः) थमा. हुआ, (अयन्वनः) यज्ञविहीन (देवपीयून) और देवहिंसकों की (प्रमृणन्) हिंसा करता हुआ (तिष्ठति) स्थित है, (तस्मै) उस के प्रति (दशभिः शक्वरीभिः) १० अङ्गुलियों अर्थात् बद्धाञ्जुलि द्वारा (नमः) नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [शक्वरीभिः = शक्वरी शब्द यद्यपि बाहु वाचक है, "शक्वरी बाहुनाम" (निघं० २।४), परन्तु यहां १० शक्वरियों द्वारा, १० अङ्गुलियां अभिप्रेत हैं, जोकि शक्वरी अर्थात् कर्म करने में सशक्त हैं। मन्त्र में यह आश्चर्य प्रकट किया गया है कि निराधार अन्तरिक्ष में रुद्र-परमेश्वर स्थिर रूप में स्थित किस प्रकार हो रहा है रुद्र विद्युत् अर्थात् इन्द्रदेवता भी है, जो कि अन्तरिक्ष में स्थित रहता है और वर्षा काल में प्रकट हो जाता है]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो रुद्र ! (अयज्वनः) यज्ञ न करने हारे (देवपीयून्) देवों, सत्पुरुषों के घातक पुरुषों को (प्रमृणन्) नाश करता हुआ (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (विष्टभितः) स्थिर होकर (तिष्ठति) खड़ा है (तस्मै) उसको (दशभिः शक्करीभिः) दसों शक्तियों सहित (नमः) नमस्कार है। अथवा—(तस्मै दशभिः शक्वरीभिः नमः) उसको हमारा दसों अंगुलियां जोड़ कर नमस्कार है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यस्तिष्ठति विश्वभृतो अन्तरिक्षे यज्वनः प्र०’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    He that abides firmly in the middle region, punishing those that neglect yajna and ignore the divinities, to that lord of nature, homage and salutations tenfold ten times with Shakvari verses.

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    Translation

    He who stands propped up in the atmosphere, killing the nonsacrificing, the god-mockers -- to him be homage with the - ten clever ones (Sakvari).

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    Translation

    We utilize by ten time strength of ours this fire which destroying integrating disintegrating forces of physical bodies and elements stands established in firmament.

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    Translation

    Homage be paid to Him, with ten fingers, Who stands established in the air's mid-region, slaying non-sacrificing sage-despisers.

    Footnote

    Ten fingers: With folded hands

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(यः) परमेश्वरः (अन्तरिक्षे) आकाशे (तिष्ठति) वर्तते (विष्टभितः) विविधं स्तभितो दृढीभूतः सन् (अयज्वनः) अ० ३।२४।२। यजेर्ङ्वनिप्। देवपूजारहितान् दुर्जनान् (देवपीयून्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकान् (तस्मै) परमेश्वराय (नमः) प्रणामः (शक्वरीभिः) अ० ३।१७।७। शक्लृ शक्तौ-वनिप्, ङीब्रेफौ। उच्चनीचदिग्विदिशाभिः सह वर्तमानायेति शेषः ॥˜

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