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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    70

    स॑हस्रा॒क्षम॑तिप॒श्यं पु॒रस्ता॑द्रु॒द्रमस्य॑न्तं बहु॒धा वि॑प॒श्चित॑म्। मोपा॑राम जि॒ह्वयेय॑मानम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षम् । अ॒ति॒ऽप॒श्यम् । पु॒रस्ता॑त् । रु॒द्रम् । अस्य॑न्तम् । ब॒हु॒ऽधा । वि॒प॒:ऽचित॑म् । मा । उप॑ । अ॒रा॒म॒ । जि॒ह्वया॑ । ईय॑मानम् ॥२.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्राक्षमतिपश्यं पुरस्ताद्रुद्रमस्यन्तं बहुधा विपश्चितम्। मोपाराम जिह्वयेयमानम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽअक्षम् । अतिऽपश्यम् । पुरस्तात् । रुद्रम् । अस्यन्तम् । बहुऽधा । विप:ऽचितम् । मा । उप । अराम । जिह्वया । ईयमानम् ॥२.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सहस्राक्षम्) सहस्रों कामों में दृष्टिवाले, (पुरस्तात्) सन्मुख से (अतिपश्यम्) आड़े-बेंड़े देखनेवाले, (बहुधा) अनेक प्रकार से [पापों को] (अस्यन्तम्) गिरानेवाले, (विपश्चितम्) महाबुद्धिमान्, (जिह्वया) जयशक्ति के साथ (ईयमानम्) चलते हुए (रुद्रम्) रुद्र [दुःखनाशक परमेश्वर] से (मा उप अराम) हम विरोध न करें ॥१७॥

    भावार्थ

    परमात्मा सब व्यवहारों को भली-भाँति देखता हुआ सबको कर्मों का फल यथावत् देता है, हम उसकी आज्ञा का सदा पालन करें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(सहस्राक्षम्) सहस्रेषु कर्मसु दृष्टियुक्तम् (अतिपश्यम्) पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। दृशिर् प्रेक्षणे-श प्रत्ययः। पाघ्राध्माधेट्०। पा० ७।३।७८। पश्यादेशः। सर्वानतिक्रम्य द्रष्टा (पुरस्तात्)) अग्रे (रुद्रम्) दुःखनाशकम् (अस्यन्तम्) शत्रुं क्षिपन्तम् (बहुधा) अनेकप्रकारेण (विपश्चितम्) मेधाविनम्। सूक्ष्मदर्शिनम् (मा उप अराम) ऋ गतौ हिंसायां वा माङि लुङि रूपम्। न हिंसेम (जिह्वया) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। जि जये-वन् हुक् च। जयशक्त्या सह (ईयमानम्) गच्छन्तम्। व्याप्नुवन्तम् ॥

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    विषय

    'जिह्वया ईयमान' रुद्र का अविस्मरण

    पदार्थ

    १. (सहस्त्राक्षम्) = सहस्रों आँखोवाले, (अतिपश्यम्) = सब बाधाओं का अतिक्रमण करके देखनेवाले, (पुरस्तात् बहुधा अस्यन्तम्) = अनेक प्रकार से शर-जाल को सामने फेंकते हुए विपश्चितम्-ज्ञानी रुद्रम् उस दुःखद्रावक प्रभु को, जिह्वया ईयमानम्-प्रलयकाल में जिह्वान से सारे संसार के भक्षण के लिए गति करते हुए को मा उप अराम-[ऋ हिंसायाम्] हिंसित न करें-न भूलें।

    भावार्थ

    रुद्ररूप में प्रभु का स्मरण हमें पवित्र जीवनवाला बनाये।

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    भाषार्थ

    (सहस्राक्षम्) हजारों आंखों वाले अर्थात् सर्वद्रष्टा, (अतिपश्यम्) बहुत दूर तक देखने वाले, (पुरस्तात्) पूर्व दिशा में (अस्यन्तम) अन्धकार का निरसन करने वाले, (विपश्चितम्) मेधावी, (बहुधा ईयमानम्) प्रायः आते हुए (रुद्रम्) रुद्र के प्रति (जिह्वया) जिह्वा द्वारा [नमस्कार करने में] (मा उपाराम) हम उपरत न हों, विश्राम न पाएँ, अर्थात् जिह्वा द्वारा उस की सदा स्तुतियां करें।

    टिप्पणी

    [बहुधा ईयमानम्= इन पदों द्वारा यह दर्शाया है कि प्रातः काल पूर्व दिशा में मुखकर समाधि का अभ्यास करनेवाले को प्रायः रूद्र-परमेश्वर के दर्शन होते हैं, वह समाधि अवस्था में चित्त में आता है, प्रकट होता है। "प्रायः" पद द्वारा यह प्रकट किया है कि समाधि के ठीक प्रकार न लगने पर वह रुद्र-परमेश्वर दर्शन नहीं भी देता। सहस्राक्षम्, अतिपश्यम्= अति पश्यम में दूर तक, देखने में रूद्र को सहस्राक्ष अर्थात् हजारों आंखों वाला कहा है।]

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    मैं साक्षाद् द्रष्टा (पुरस्तात्) अपने समक्ष (सहस्राक्षम् रुद्रम्) सहस्रों आंखों से सम्पन्न अति भयंकर दुष्टों को रुलाने हारे काल रूप (विपश्चितम्) समस्त कार्यों और ज्ञानों को जानने हारे (बहुधा अस्यन्तम्) प्रभु को नाना प्रकार से अपने बाण प्रहार करते हुए (अतिपश्यम्) अति क्रान्तदर्शनी दृष्टि से देख रहा हूं। (जिह्वया ईयमानं) अपनी काल जिह्वा से सर्वत्र व्यापक उसको हम (मा उपाराम) प्राप्त न हों। हम उस काल के ग्रास न हो।

    टिप्पणी

    ‘सहस्राक्षम्’—क्षहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। यजु०। ‘जिह्वया ईयमानम्’—पश्यामि त्वां दुर्निरीच्यं समन्तात् दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्। (गी० ११। १७) पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवकं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्। ११। २०॥ लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात् लोकान् समग्रान् वदनैर्ज्वलद्भिः। तेजोभिरापूर्य जगत् समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो॥ ११। ३०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    Let us never relent in our praise and adoration of Rudra in words, all pervasive, all watching lord with a thousand eyes, dispelling darkness and injustice upfront, all wise and omniscient in universal ways.

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    Translation

    With the thousand-eyed one, seeing across in front, with Rudra, hurling in many places, inspired one, may we not come in collision, as he goes about (Iya) with the tongue.

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    Translation

    We do not use any bad word with our tongue for this fire which possesses thousand powers, which is the object of analytical investigation which tremendously luminous and which obviously the source of eyesight.

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    Translation

    Let us not contend with God, the Seer of thousands of acts, Far-seeing, the Thrower of sins far away, Erudite All-pervading with His Death-like tongue.

    Footnote

    Death is metaphorically spoken of as the tongue of God, with which He punishes the wicked and devours the sinner.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(सहस्राक्षम्) सहस्रेषु कर्मसु दृष्टियुक्तम् (अतिपश्यम्) पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। दृशिर् प्रेक्षणे-श प्रत्ययः। पाघ्राध्माधेट्०। पा० ७।३।७८। पश्यादेशः। सर्वानतिक्रम्य द्रष्टा (पुरस्तात्)) अग्रे (रुद्रम्) दुःखनाशकम् (अस्यन्तम्) शत्रुं क्षिपन्तम् (बहुधा) अनेकप्रकारेण (विपश्चितम्) मेधाविनम्। सूक्ष्मदर्शिनम् (मा उप अराम) ऋ गतौ हिंसायां वा माङि लुङि रूपम्। न हिंसेम (जिह्वया) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। जि जये-वन् हुक् च। जयशक्त्या सह (ईयमानम्) गच्छन्तम्। व्याप्नुवन्तम् ॥

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