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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - चतुष्पदोष्णिक् सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    52

    रु॒द्रस्यै॑लबका॒रेभ्यो॑ऽसंसूक्तगि॒लेभ्यः॑। इ॒दं म॒हास्ये॑भ्यः॒ श्वभ्यो॑ अकरं॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒द्रस्य॑ । ऐ॒ल॒ब॒ऽका॒रेभ्य॑: । अ॒सं॒सू॒क्त॒ऽगि॒लेभ्य॑: । इ॒दम् । म॒हाऽआ॑स्येभ्य: । श्वऽभ्य॑: । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुद्रस्यैलबकारेभ्योऽसंसूक्तगिलेभ्यः। इदं महास्येभ्यः श्वभ्यो अकरं नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुद्रस्य । ऐलबऽकारेभ्य: । असंसूक्तऽगिलेभ्य: । इदम् । महाऽआस्येभ्य: । श्वऽभ्य: । अकरम् । नम: ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऐलवकारेभ्यः) लगातार भों-भों ध्वनि करनेवाले (असंसूक्तगिलेभ्यः) अमङ्गल शब्द बोलनेवाले, (महास्येभ्यः) बड़े-बड़े मुँहवाले (श्वभ्यः) कुत्तों के रोकने के लिये (रुदस्य) रुद्र [दुःखनाशक परमेश्वर] को (इदम्) यह (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है ॥३०॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्न करें कि चोर आदि दुर्जन इधर-उधर न घूमें, जिनके न होने से चौकसी के कुत्ते भयानक शब्द न करें ॥३०॥

    टिप्पणी

    ३०−(रुद्रस्य) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। इति षष्ठी। रुद्राय। दुःखनाशकाय (ऐलवकारेभ्यः) आङ्+इल स्वप्नक्षेपणयोः-घञ्+वण, वण शब्दे-ड+करोतेः-अण्। आक्षेपध्वनिकारकेभ्यः (असंसूक्तगिलेभ्यः) जलिकल्यनिमहि०। उ० १।५४। अ+सम्+सूक्त+गॄ शब्दे-इलच्। असंसूक्तस्य अशुभवचनस्य भाषणशीलेभ्यः (इदम्) (महास्येभ्यः) विशालमुखेभ्यः (श्वभ्यः) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। शुनः कुक्कुरान् निवारयितुम् (अकरम्) करोतेर्लुङ्। कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। पा० ३।१।५९। च्लेरङ्। अहं कृतवानस्मि ॥

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    विषय

    श्वभ्यः नमः

    पदार्थ

    १. (रुद्रस्य)  = शत्रुओं का रोदन करानेवाले रुद्र के लिए (ऐलवकारेभ्य:) = [ऐलवानि-इल प्रेरणे] प्रेरणायुक्त कर्मों को करनेवाले लोगों के लिए (नमः अकरम्) = मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलनेवालों के लिए नमस्कार करता हूँ (अ-संसूक्त-गिलेभ्य:) = अशुभ भाषणों को निगल जानेवालों के लिए-कभी अशुभ न बोलनेवाले (श्वभ्य:) = [शिव गतिवद्धयोः] गति द्वारा वृद्धि को प्राप्त करनेवाले इन आदरणीय पुरुषों के लिए (इदं) = [नमः अकरम्] नमस्कार करता हूँ।

    भावार्थ

    उस रुद्र के इन पुरुषों के लिए मैं आदरपूर्वक प्रणाम करता है जोकि [क] प्रभु प्रेरणायुक्त कर्मों को करते हैं। [ख] कभी अपशब्द नहीं बोलते। [ग] जिनके मुख से महनीय शब्दों का ही उच्चारण होता है। [घ] जो गति द्वारा उन्नति-पथ पर बढ़ रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (ऐलवकारेभ्यः) विलासी-कर्मों के करने वालों के लिये, (असंसूक्तगिलेभ्यः) न सम्यक् विधि से और न उत्तम वचनों का भाषण करने वालों के लिये, तथा (महास्येभ्यः श्वभ्यः) महा-खाऊ कुत्तों के लिये, (रुद्रस्य) पापियों को रुलाने वाले परमेश्वर का (नमः) बज्रपात हो, ऐसों के लिये (अकरम्, नमः) मैंने भी दूरतः नमस्कार किया है, यथा "दूरतो दुर्जना वन्द्याः”।

    टिप्पणी

    [ऐलवकारेभ्यः =एला विलासे+स्वार्थे अण्+मतुबर्थक "वः" + कारेभ्यः, अर्थात् जो विलासी कर्मों के करने वाले हैं उन के लिये। असंसूक्त गिलेभ्यः = अ +सम् (सम्यक् विधि से) + सु (उत्तम) उक्त (वचन) + गिलेभ्यः (गृ ज्ञब्दे), अर्थात् जो न सम्यक् विधि से और न उत्तम वचनों का भाषण करते हैं उन के लिये। महास्येभ्यः श्वभ्यः =श्वभ्यः द्वारा उन व्यक्तियों का निर्देश किया है, जोकि कुपथ द्वारा, या लूट-मार कर, दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण कर, भोग करते हैं। इन्हें “महास्येभ्यः" द्वारा महामुखी या महाखाऊ कुत्ते कहा है। ये व्यक्ति पापी हैं, इसलिये ये रुद्र के शिकार हैं। परमेश्वर से प्रार्थना की है कि वह इन पर निज वज्र प्रहार करे, "नमः वज्रनाम (निघं० २।२०); तथा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति भी इन्हें दूरतः नमस्कार करदे, इन का सामाजिक वायकाट करे, क्योंकि ऐसे व्यक्ति समाजद्रोही हैं। सम्यक्-विधि का अभिप्राय है कि सुवचनों का भाषण भी मीठे और प्रेम संसिक्त विधि से करना चाहिये, जैसे कि मनु ने कहा है कि "न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्", अर्थात् सत्यवचनों को भी अप्रियविधि से न कहे, उन्हें भी प्रिय वचनों में कहे]।

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (रुदस्य) रुद्र के (ऐलवकारेभ्यः) भेड़ के समान शब्द करने वाले और (असंसूक्त-गिलेभ्यः) भली प्रकार न उच्चारण करने योग्य विकृत शब्दों को उच्चारण करने वाले (महास्येभ्यः) बढ़े मुख वाले (श्वभ्यः) कुत्तों को भी (इदं नमः अकरम्) यह (नमः) अन्न हम प्रदान करते हैं। ‘ऐलवकार’ ऐलवानि प्रेरणयुक्तानि कर्माणि कुर्वन्ति ऐलवकाराः कर्मकराः प्रथमगणाः इति सायणः। ऐलवकाराः = ‘ऐड-रवकारा’ इति शकन्ध्वादित्वात् साधुः।

    टिप्पणी

    ‘असंसूक्त-गिलाः’ ‘अ-सं-सूक्त-गिलाः’। ‘असंसूक्तगिराः’ समीचीनं शोभनं सूक्तं वेदमन्त्रादि, सद्भाषितं वा न गिरन्ति भाषन्ते इति असूक्तगिराः। न संसूक्तेन गिलन्नि भक्षयन्ति इति ह्विटनिः। (द्वि०) ‘असंसक्तगिलेभ्यः’ इति पैट० लाक्षणिक्कामितः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    To the uprorious, instantaneous and loudest warning waking voices of Rudra, I have done the homage and recognition due. (For this mantra cross-reference may be made to Swami Dayananda’s and Satavalekara’s commentary on Rgveda, 1, 161, 13.)

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    Translation

    To Rudra’s howl-making, unhymned-swallowing(?), greatmouthed dogs I have paid this homage.

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    Translation

    Let us utilize all effectual means against those diseases caused by this fire which like dogs of big mouths make one talk more articulately and inarticulately.

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    Translation

    This lowly reverence have I paid to God, for keeping away dogs with mighty mouths, hounds who bark and howl terribly, who utter incoherent words.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(रुद्रस्य) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। इति षष्ठी। रुद्राय। दुःखनाशकाय (ऐलवकारेभ्यः) आङ्+इल स्वप्नक्षेपणयोः-घञ्+वण, वण शब्दे-ड+करोतेः-अण्। आक्षेपध्वनिकारकेभ्यः (असंसूक्तगिलेभ्यः) जलिकल्यनिमहि०। उ० १।५४। अ+सम्+सूक्त+गॄ शब्दे-इलच्। असंसूक्तस्य अशुभवचनस्य भाषणशीलेभ्यः (इदम्) (महास्येभ्यः) विशालमुखेभ्यः (श्वभ्यः) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। शुनः कुक्कुरान् निवारयितुम् (अकरम्) करोतेर्लुङ्। कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। पा० ३।१।५९। च्लेरङ्। अहं कृतवानस्मि ॥

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