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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त
    85

    मा नो॒ऽभि स्रा॑ म॒त्यं देवहे॒तिं मा नः॑ क्रुधः पशुपते॒ नम॑स्ते। अ॒न्यत्रा॒स्मद्दि॒व्यां शाखां॒ वि धू॑नु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । अ॒भि । स्रा॒: । म॒त्य᳡म् । दे॒व॒ऽहे॒तिम् । मा । न॒: । क्रु॒ध॒: । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । नम॑: । ते॒ । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । दि॒व्याम् । शाखा॑म् । व‍ि । धू॒नु॒ ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नोऽभि स्रा मत्यं देवहेतिं मा नः क्रुधः पशुपते नमस्ते। अन्यत्रास्मद्दिव्यां शाखां वि धूनु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । अभि । स्रा: । मत्यम् । देवऽहेतिम् । मा । न: । क्रुध: । पशुऽपते । नम: । ते । अन्यत्र । अस्मत् । दिव्याम् । शाखाम् । व‍ि । धूनु ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (पशुपते) हे दृष्टिवाले [जीवों] के रक्षक ! (नः) हमारे लिये (देवहेतिम्) दिव्य [अद्भुत] वज्र, (मत्यम्) अपनी मुट्ठी [घूँसा] को (मा अभि स्राः) ताककर मत छोड़, (नः) हम पर (मा क्रुधः) मत क्रोध कर, (ते) तुझे (नमः) नमस्कार है। (अस्मत्) हमसे (अन्यत्र) दूसरों [दुष्टों] पर (दिव्याम्) दिव्य (शाखाम्) भुजा को (वि धूनु) हिला ॥१९॥

    भावार्थ

    हम सदा धर्म में प्रवृत्त रहकर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करें, जिस से वह हम पर क्रोध न करे और न भय दिखावे ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(नः) अस्मभ्यम् (अभि) अभितः (मा स्राः) सृज विसर्गे माङि लुङि रूपम्। सृजिदृशोर्झल्यमकिति। पा० ६।१।५९। अमागमः, वृद्धौ। झलो झलि। पा० ८।२।२६। सिचो लोपः। बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। ईडभावः। हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्०। पा० ६।१।६८। सिलोपः, जलोपश्छान्दसः। मा स्राक्षीः। मा त्यज (मत्यम्) अ० ८।८।११। मतजनहलात् करण०। पा० ४।४।९७। मत-यत्। मतं ज्ञानं तस्य करणमिति। मुष्टिम् (देवहेतिम्) अद्भुतवज्रम् (नः) अस्मभ्यम् (मा क्रुधः) क्रुध कोपे माङि लुङि-पुषादित्वात् च्लेः अङ् आदेशः। क्रोधं मा कुरु (पशुपते) हे दृष्टिमतां जीवानां पालक (नमः) (ते) तुभ्यम्। (अन्यत्र) अन्येषु शत्रुषु (अस्मत्) अस्मत्तः (दिव्याम्) अद्भुताम् (शाखाम्) शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। बाहुम्-यथा शब्दकल्पद्रुमकोषे (वि) विविधम् (धूनु) कम्पय ॥

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    विषय

    वज्रपात का न होना

    पदार्थ

    १. हे (पशुपते) = प्राणियों के रक्षक प्रभो। (मत्यम्) = [मते समीकरणे साध: A harrow] सबको बराबर कर देनेवाली (देवहेतिम्) = इस दिव्य अस्त्ररूप विद्युत् को (न:) = हमारा (मा अभिस्त्रा:) = लक्ष्य करके मत फैकिए। हमपर आकाश से यह बिजली न गिर पड़े। गिरती हुई विद्युत् सबको गिराती हुई समीकृत-सा कर देती है। (न: मा कुधः) = हमारे प्रति आप क्रोध न कीजिए-हम पाप से बचते हुए आपके क्रोध-पात्र न हों। (नम: ते) = हम आपके लिए नतमस्तक होते हैं। २. इस (दिव्याम्) = आकाश में होनेवाली-अलौकिक-(शाखाम्) = [खे शेते, शक्रोतेर्वा-नि०] आकाश में शयन करनेवाली शक्तिशाली विद्युत् को (अस्मत् अन्यत्र) = हमसे भिन्न अन्य स्थान में ही (विधूनु) = कम्पित कीजिए। हम विद्युत्पतन के शिकार न हों।

    भावार्थ

    जीवन को स्वाभाविक व सरल बनाते हुए हम विद्युत्पतन आदि आधिदैविक आपत्तियों के शिकार न हों।

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    भाषार्थ

    (मत्यम्) अभिमत (देवहेतिम्) दिव्यास्त्र (नः) हमारे प्रति (मा)(अभिस्राः) फैंक, (नः) हमारे प्रति (मा क्रुधः) क्रोध न कर, (पशुपते) हे पशुओं अर्थात् प्राणियों के स्वामिन् ! (ते नमः) तुझे नमस्कार हो। (अस्मत्) हम प्राणियों से (अन्यत्र) अन्य स्थान में [अर्थात् अप्राणि-स्थानों में (दिव्याम्, शाखाम्) दिव्यशाखा अर्थात् विद्युत् को (विधूनु) फैंक।

    टिप्पणी

    [स्राः = सृज; सृजतेः "माङि लुङ्" मध्यमैकवचने (सायण)। मत्यम् (अथर्व० ८।८।११) में भी “मत्यम्" पद पठित है। सम्भवतः इस का अर्थ हो "अभिमत अस्त्र"। विद्युत् की चमक को दिव्या-शाखा कहा है। जब विद्युत् चमकती है तो काम्पती हुई शाखा सी प्रतीत होती है (मन्त्र २६)।]

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    विषय

    रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (पशुपते) समस्त प्राणियों के पालक ! (सत्यं) स्तम्भन करने वाले (देवहेतिं) दिव्य शस्त्र को (नः) हम पर (मा अभि स्राः) मत चला। (नः) हम पर (मा क्रुधः) क्रोध मत कर। (नमः ते) तुझे नमस्कार है। (दिव्याम्) दिव्य तेजस्विनी, विजयशालिनी अथवा घन-घोर गर्जना करने वाली या मर्दनकारिणी (शाखाम्) आकाशचारिणी शक्तिमती विद्युत्लता को (अस्मत् अन्यत्र) हम से परे (वि धूनु) चला। ‘दिव्या’ दिवु परिकूजेन, दिवु मर्दने (इति चुरादि), दिवुक्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वकान्तिगतिषु (दिवादिः)। शाखा—खे शेते इति शाखा। शक्रोतेर्वा शाखा। [ नि० ६। ६। ४ ]।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘मर्त्य’ इति सायणाभिमतः पाठः। ‘मत्यं देवहितम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rudra

    Meaning

    Pray do not strike the punitive bolt of divine displeasure upon us. Pray be not angry, O Pashupati. Homage and salutations to you. Let the celestial lightning strike elsewhere away from us.

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    Translation

    Do not let fly at us the club (? matya), the god-missile: be not angry at us, O lord of cattle; homage to theee; elsewhere _ than (over) us shake out the heavenly bough.

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    Translation

    May not (by God's grace) this fire protecting creating cast its uniques mortifying weapon or power to destroy or set at rest our activities. May not it do our harm and may it employ its wonderful power elsewhere besides us needed to be used. We praise this power of fire.

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    Translation

    O King, the guardian of his subjects, cast not thy club at us, thy divine weapon. Be not wrath with us, Let reverence be paid to thee. Shake thy royal arm above some others elsewhere, not o'er us!

    Footnote

    शारवाम्: वाहम् see Shabda Kalpa Dram Kosha.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(नः) अस्मभ्यम् (अभि) अभितः (मा स्राः) सृज विसर्गे माङि लुङि रूपम्। सृजिदृशोर्झल्यमकिति। पा० ६।१।५९। अमागमः, वृद्धौ। झलो झलि। पा० ८।२।२६। सिचो लोपः। बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। ईडभावः। हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्०। पा० ६।१।६८। सिलोपः, जलोपश्छान्दसः। मा स्राक्षीः। मा त्यज (मत्यम्) अ० ८।८।११। मतजनहलात् करण०। पा० ४।४।९७। मत-यत्। मतं ज्ञानं तस्य करणमिति। मुष्टिम् (देवहेतिम्) अद्भुतवज्रम् (नः) अस्मभ्यम् (मा क्रुधः) क्रुध कोपे माङि लुङि-पुषादित्वात् च्लेः अङ् आदेशः। क्रोधं मा कुरु (पशुपते) हे दृष्टिमतां जीवानां पालक (नमः) (ते) तुभ्यम्। (अन्यत्र) अन्येषु शत्रुषु (अस्मत्) अस्मत्तः (दिव्याम्) अद्भुताम् (शाखाम्) शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। बाहुम्-यथा शब्दकल्पद्रुमकोषे (वि) विविधम् (धूनु) कम्पय ॥

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