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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    अधि॑ ब्रूहि॒ मा र॑भथाः सृ॒जेमं तवै॒व सन्त्सर्व॑हाया इ॒हास्तु॑। भवा॑शर्वौ मृ॒डतं॒ शर्म॑ यच्छतमप॒सिध्य॑ दुरि॒तं ध॑त्त॒मायुः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । ब्रू॒हि॒ । मा । आ । र॒भ॒था॒: । सृ॒ज । इ॒मम् । तव॑ । ए॒व । सन् । सर्व॑ऽहाया: । इ॒ह । अ॒स्तु॒ । भवा॑शर्वौ । मृ॒डत॑म् । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒प॒ऽसिध्य॑ । दु॒:ऽइ॒तम् । ध॒त्त॒म् । आयु॑: ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि ब्रूहि मा रभथाः सृजेमं तवैव सन्त्सर्वहाया इहास्तु। भवाशर्वौ मृडतं शर्म यच्छतमपसिध्य दुरितं धत्तमायुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि । ब्रूहि । मा । आ । रभथा: । सृज । इमम् । तव । एव । सन् । सर्वऽहाया: । इह । अस्तु । भवाशर्वौ । मृडतम् । शर्म । यच्छतम् । अपऽसिध्य । दु:ऽइतम् । धत्तम् । आयु: ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    हे मृत्यु ! संसार के सहारे करने वाले प्रभो ! (अधि ब्रूहि) तू इस जीव को दीर्घ जीवन प्राप्त करने का उपदेश कर। (मा रभथाः) इसको मार मत। (इमं सृज) इस पुरुष को उत्पन्न कर, रच और आगे बढ़ा। यह पुरुष (तव एव) तेरा ही (सन्) होकर (इह) इस लोक में (सर्व- हायाः) समस्त जीवन के शतवर्ष पर्यन्त (अस्तु) रहे। (भवाशर्वौ) हे भव और शर्व ! सर्वोत्पादक और सर्वविनाशक शक्तियो ! तुम दोनों अपने अपने अवसर पर इस जीव को (मृडतम्) सुखी करो और (शर्म यच्छतम्) सुखमय कल्याण प्रदान करो। इस पुरुष के (दुरितम्) दुष्कर्म, पाप, दुष्ट आचरण को (अपसिध्य) दूर करके (आयुः धत्तम्) दीर्घ जीवन प्रदान करो। उत्पत्ति काल में जीव में दुश्चेष्टाओं को दूर करने और वार्धक काल में तपस्या करने से भी दीर्घ जीवन प्राप्त होता और जीवन में सुख होता है। नहीं तो बाल्यकाल के कुसंग और वार्धक काल की भोगतृष्णा ही जीवन को रोगमय और जीर्ण कर देती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, २, ७ भुरिजः। ३, २६ आस्तार पंक्तिः, ४ प्रस्तार पंक्तिः, ६,१५ पथ्या पंक्तिः। ८ पुरस्ताज्ज्योतिष्मती जगती। ९ पञ्चपदा जगती। ११ विष्टारपंक्तिः। १२, २२, २८ पुरस्ताद् बृहत्यः। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १९ उपरिष्टाद् बृहती। २१ सतः पंक्तिः। ५,१०,१६-१८, २०, २३-२५,२७ अनुष्टुभः। १७ त्रिपाद्॥

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