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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    अ॒ग्नेः शरी॑रमसि पारयि॒ष्णु र॑क्षो॒हासि॑ सपत्न॒हा। अथो॑ अमीव॒चात॑नः पू॒तुद्रु॒र्नाम॑ भेष॒जम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्ने: । शरी॑रम् । अ॒सि॒ । पा॒र॒यि॒ष्णु । र॒क्ष॒:ऽहा । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । अथो॒ इति॑ । अ॒मी॒व॒ऽचात॑न: । पू॒तुद्रु॑: । नाम॑ । भे॒ष॒जम् ॥२.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेः शरीरमसि पारयिष्णु रक्षोहासि सपत्नहा। अथो अमीवचातनः पूतुद्रुर्नाम भेषजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने: । शरीरम् । असि । पारयिष्णु । रक्ष:ऽहा । असि । सपत्नऽहा । अथो इति । अमीवऽचातन: । पूतुद्रु: । नाम । भेषजम् ॥२.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 28

    भावार्थ -
    हे आत्मन् ! पुरुष ! तू स्वयं (अग्नेः) उस ज्ञानमय आत्मा का (शरीरम् असि) शरीर है। तू स्वयं (पारयिष्णु) इस क्लेशमय संसार के पार करने में समर्थ, (रक्षोहा) समस्त विघ्नों और विघ्नकारी दुष्टों का नाशक और (सपत्नहा) शत्रुओं का नाशक (असि) है (अथो) और तू (अमीव-चातनः) समस्त रोगों, क्लेश का नाशक है। तू ही (पृत-द्रुः) इस शरीररूप वृक्ष को सदा पवित्र करने वाला (भेषजम्) सब भव रोगों का परम औषध है। ब्रह्म के विषय में—(पूतु-द्रुः) इस महान् ब्रह्माण्डमय वृक्ष को पवित्र करने वाला है। अथवा ‘ऊर्ध्वमूलो अवाक्शाखः एषोऽश्वत्थः सनातनः’ इत्यादि प्रतिपादित पवित्र वृक्षस्वरूप ब्रह्म ही भवरोग का परम औषध है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, २, ७ भुरिजः। ३, २६ आस्तार पंक्तिः, ४ प्रस्तार पंक्तिः, ६,१५ पथ्या पंक्तिः। ८ पुरस्ताज्ज्योतिष्मती जगती। ९ पञ्चपदा जगती। ११ विष्टारपंक्तिः। १२, २२, २८ पुरस्ताद् बृहत्यः। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १९ उपरिष्टाद् बृहती। २१ सतः पंक्तिः। ५,१०,१६-१८, २०, २३-२५,२७ अनुष्टुभः। १७ त्रिपाद्॥

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