अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 5
ऋ॒चा कु॒म्भीमध्य॒ग्नौ श्र॑या॒म्या सि॑ञ्चोद॒कमव॑ धेह्येनम्। प॒र्याध॑त्ता॒ग्निना॑ शमितारः शृ॒तो ग॑च्छतु सु॒कृतां॒ यत्र॑ लो॒कः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒चा । कु॒म्भीम् । अधि॑ । अ॒ग्नौ । श्र॒या॒मि॒ । आ । सि॒ञ्च॒ । उ॒द॒कम् । अव॑ । धे॒हि॒ । ए॒न॒म् । प॒रि॒ऽआध॑त्त । अ॒ग्निना॑ । श॒मि॒ता॒र॒: । शृ॒त: । ग॒च्छ॒तु॒ । सु॒ऽकृता॑म् । यत्र॑ । लो॒क: ॥५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचा कुम्भीमध्यग्नौ श्रयाम्या सिञ्चोदकमव धेह्येनम्। पर्याधत्ताग्निना शमितारः शृतो गच्छतु सुकृतां यत्र लोकः ॥
स्वर रहित पद पाठऋचा । कुम्भीम् । अधि । अग्नौ । श्रयामि । आ । सिञ्च । उदकम् । अव । धेहि । एनम् । परिऽआधत्त । अग्निना । शमितार: । शृत: । गच्छतु । सुऽकृताम् । यत्र । लोक: ॥५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 5
विषय - अज के दृष्टान्त से पञ्चौदन आत्मा का वर्णन।
भावार्थ -
(अग्नौ) जिस प्रकार अग्नि पर (कुम्भीम्) डेगची रख कर उसे तपाया जाता है उस प्रकार मैं ज्ञान का पिपासु और मुमुक्षु (ऋचा) ज्ञान की अग्नि द्वारा अपने आप को (अग्नौ) ज्ञानाग्निमय परमात्मा या गुरु के ऊपर रख उस को (अधि श्रयामि) परिपाक करता हूं। हे गुरो ! परम ब्रह्मन् ! (उदकम्) जिस प्रकार तपी हांडी में जल डाला जाता है उसी प्रकार मुझ परितप्त, तपस्वी जिज्ञासु में ज्ञानरूप या ‘उत्-अक’ उत्तमगति या परम सुख प्राप्ति के उपायभूत ब्रह्मोपदेश को (आसिञ्च) प्रदान कर मुझ में प्रवाहित कर। गुरु इस प्रकार जिज्ञासु के तप से प्रसन्न होकर योग्य पात्र जान कर प्रेम से ब्रह्मचारी, तपस्तवी और जितेन्द्रिय, शान्तचित्त के प्रति उपदेश करे। हे प्रिय तपस्विन् ! (एनम्) उस पूर्वोक्त आत्मा का (अव धेहि) सावधान होकर ज्ञानकर “आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्र”। “तद् विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्म” इत्यादि उप०। इस प्रकार जब एक गुरु से ज्ञान प्राप्त करे तब ‘तीर्थात् तीर्थान्तरं व्रजेत्’ इस न्याय से क्रम से बहुत से ब्रह्मज्ञानियों से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करे। उनसे कहे—हे (शमितारः) शम दमादि गुणों से सम्पन्न गुरुजनो ! (अग्निना) उस ज्ञानमय ब्रह्म से या प्रकाश स्वरूप ब्रह्मज्ञान से (पर्याधत्त) मुझे युक्त करो, मुझ में ब्रह्माग्नि का स्थापन करो। इस प्रकार (श्रृतः) तपस्या में परिपक्व होकर तपस्वी महात्माओं का (यत्र लोकः) जहां निवास हो वहां ही (गच्छतु) जावे और उनसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। अजः पञ्चोदनो देवता। १, २, ५, ९, १२, १३, १५, १९, २५, त्रिष्टुभः, ३ चतुष्पात् पुरोऽति शक्वरी जगती, ४, १० नगत्यौ, १४, १७,२७, ३०, अनुष्टुभः ३० ककुम्मती, २३ पुर उष्णिक्, १६ त्रिपाद अनुष्टुप्, १८,३७ त्रिपाद विराड् गायत्री, २४ पञ्चपदाऽनुपटुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बर्हता विराड् जगती २०-२२,२६ पञ्चपदाउष्णिग् गर्भोपरिष्टाद्बर्हता भुरिजः, ३१ सप्तपदा अष्टिः, ३३-३५ दशपदाः प्रकृतयः, ३६ दशपदा प्रकृतिः, ३८ एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप, अष्टात्रिंशदर्चं सूक्तम्॥
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