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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 11
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दा॒सप॑त्नी॒रहि॑गोपा अतिष्ठ॒न्निरु॑द्धा॒ आपः॑ प॒णिने॑व॒ गावः॑ । अ॒पां बिल॒मपि॑हितं॒ यदासी॑द्वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अप॒ तद्व॑वार ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दा॒सऽप॑त्नीः॒ । अहि॑ऽगोपाः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् । निऽरु॑द्धाः । आपः॑ । प॒णिना॑ऽइव । गावः॑ । अ॒पाम् । बिल॑म् । अपि॑ऽहितम् । यत् । आसी॑त् । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वान् । अप॑ । तत् । व॒वा॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दासपत्नीः । अहिगोपाः । अतिष्ठन् । निरुद्धाः । आपः । पणिनाइव । गावः । अपाम् । बिलम् । अपिहितम् । यत् । आसीत् । वृत्रम् । जघन्वान् । अप । तत् । ववार॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (दासपत्नीः) दास आश्रयदाता पतिर्यासां ताः। अत्र सुपांसुलुग इति पूर्वसवर्णादेशः। (अहिगोपाः) अहिना मेघेन गोपा गुप्ता अच्छादिताः (अतिष्ठन्) तिष्ठन्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (निरुद्धाः) संरोधं प्रापिताः (आपः) जलानि (पणिनेव) गोपालेन वणिग्जनेनेव (गावः) पशवः (अपाम्) जलानाम् (विलम्) गर्त्तम् (अपिहितम्) आच्छादितम् (यत्) पूर्वोक्तम् (आसीत्) अस्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (वृत्रम्) सूर्यप्रकाशावरकं मेघम् (जघन्वान्) हन्ति। अत्र वर्त्तमाने लिट्। (अप) दूरीकरणे (तत्) द्वारम् (ववार) वृणोत्युद्घाटयति। अत्र वर्त्तमाने लिट् यास्कमुनिरिमं मंत्रमेवं व्याचष्टे दासपत्नीर्दासाधिपत्न्यो दासो दस्यते रूपं *दासयति कर्म्माण्यहिगोपा अतिष्ठन्नहिना गुप्ताः। अहिरवनादेत्यन्तरिक्षे ऽयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव निर्ह्वसितोपसर्ग आहंतीति। निरुद्धा आपः पणिनेव गावः। पणिर्वणिग्भवति पणिः पणनाद्वणिक् पण्यं नेनेक्ति। अपां बिलमपिहितं यदासीत्। बिलं भरं भवति बिभर्त्तेवृत्रं जघ्निवानपववार। निरु० २।१७। ॥११॥ *[वै० यं० निरुक्ते ‘रूपदासयतीति’ पाठो वर्तते।सं०]

    अन्वयः

    पुनः सूर्यस्तं प्रति किं करोतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे सभापते यथा पणिनेव गावो दासपत्न्योऽहिगोपा येन वृत्रेण निरुद्धा आपोऽतिष्ठन् तिष्ठन्ति तासामपां यद्बिलमपिहितमासीदस्ति तं सविता जघन्वान् हन्ति हत्त्वा तज्जलगमनद्वारमपववारापवृणोत्युद्घाटयति तथैव दुष्टाचाराञ् शत्रून्निरुध्य न्यायद्वारं प्रकाशितं रक्ष ॥११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा गोपालः स्वकीया गाः स्वामीष्टे स्थाने निरुणद्धि पुनर्द्वारं चोद्घाट्य मोचयति यथा वृत्रेण मेघेन स्वकीयमण्डलेऽपां द्वारमावृत्य ता वशं नीयन्ते यथा सूर्यस्तं मेघं ताडयति तज्जलद्वारमपावृत्यापोविमोचयति तथैव राजपुरुषैः शत्रून्निरुध्य सततं प्रजाः पालनीयाः ॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सूर्य उस मेघ के प्रति क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे सभापते ! (पाणिनेव) गाय आदि पशुओं के पालने और (गावः) गौओं को यथायोग्य स्थानों में रोकनेवाले के समान (दासपत्नीः) अति बल देनेवाला मेघ जिनका पति के समान और (अहिगोपाः) रक्षा करनेवाला है वे (निरुद्धाः) रोके हुए (आपः) (अतिष्ठन्) स्थित होते हैं उन (अपाम्) जलों का (यत्) जो (बिलम्) गर्त्त अर्थात् एक गढ़े के समान स्थान (अपहितम्) ढ़ापसा रक्खा (आसीत्)* उस (वृत्रम्) मेघ को सूर्य (जघन्वान्) मारता है मारकर (तत्) उस जल की (अपववार) रुकावट तोड़ देता है वैसे आप शत्रुओं को दुष्टाचार से रोक के न्याय अर्थात् धर्ममार्ग को प्रकाशित रखिये ॥११॥ जल अर्थ छूट गया है। सं० *है अर्थ छूट गया है। सं०

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे गोपाल अपनी गौओं को अपने अनुकूल स्थान में रोक रखता और फिर उस स्थान का दरवाजा खोल के निकाल देता है और जैसे मेघ अपने मंडल में जलों का द्वार रोक के उन जलों को वश में रखता है वैसे सूर्य्य उस मेघ को ताड़ना देता और उस जल की रुकावट को तोड़ के अच्छे प्रकार उसे बरसाता है वैसे ही राजपुरुषों को चाहिये कि शत्रुओं को रोकेकर प्रजा का यथायोग्य पालन किया करें ॥११॥

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    विषय

    कैद में रखना, न कि रहना

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति इन शब्दों पर हुई थी कि यह भस्मीभूत काम घने अँधेरे में पड़ा है और हमें सावधान रहना चाहिए कि यह कहीं जाग न जाए; यदि यह जाग जाता है तो हमारा अधिपति बन जाता है और हमारा नाश ही कर देता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (दासपत्नीः) - [दसु उपक्षये] सबके क्षय का कारणभूत यह वृत्र जब हमारा पति बन जाता है और यह (अहिगोपाः) - सबका हनन करनेवाला 'अहि' नामक काम ही हमें अपने कैदखाने में रखनेवाला होता है, तो ये दासपत्नी अहिगोपा (आपः) - प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (निरुद्धाः) - इस काम से कैद की हुई (अतिष्ठन्) - रहती हैं, उसी प्रकार इस काम की कैद में वे रहती हैं (इव( - जैसे कि (गावः पणिना) - गौवें किसी बणिये से बाड़े में रोकी जाती हैं । 

    २. (अपां बिलम्) - इन प्रजाओं का इस काम के ऊदखाने का द्वार (यत्( - जो (अपिहितम्) - वृत्र के द्वारा बन्द किया हुआ (आसीत्) - था, (तत्) - उस ब्रह्मद्वार को (अपववार) - वही पुरुष खोल पाता है जो (वृत्रं जघन्वान्) - इस वृत्र [कामदेव] को नष्ट करता है । वृत्र के नाश से ही हम इसके कैदखाने से मुक्त हो सकते हैं । वृत्र के साथ किसी समझौते की आशा करना व्यर्थ है । यह तो जागते ही हमें मारेगा । 

    ३. मरा हुआ यह काम हमारे जीवन का कारण होगा; तब यह प्रेम में परिणत होकर हमारी स्वाध्याय व यज्ञादि की रुचि का साधन होगा - 'काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः' । यदि तनिक भी यह जीवित हुआ तो हमें मार डालेगा । इसीलिए मनु कहते हैं कि 'कामात्मता न प्रशस्ता' काममय हो जाना अच्छा नहीं । इसकी कैद में न रहकर इसे कैद में रखना ही ठीक है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - काम ध्वंसक है, घातक है । इसकी कैद से निकलना ही ठीक है । 

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    विषय

    फिर सूर्य उस मेघ के प्रति क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभापते यथा पणिना इव गावः दासपत्न्यः अहिगोपाः येन वृत्रेण निरुद्धाः आपः अतिष्ठन् तिष्ठन्ति तासाम् अपां यत् बिलम् अपिहितम् आसीत् अस्ति तं सविता जघन्वान् हन्ति हत्त्वा तत् जलं गमनद्वारम् अप ववार अपवृणोति उद्घाटयति तथैव दुष्टाचारान् शत्रून् निरुध्य न्यायद्वारं प्रकाशितं रक्ष ॥११॥

    पदार्थ

    हे (सभापते)=सभापते ! (यथा)=जैसे, (पणिनेव) गोपालेन वणिग्जनेनेव=गाय आदि पशुओं के व्यापारी लोगों के समान, (गावः) पशवः=पशुओं के, (दासपत्नीः) दास आश्रयदाता पतिर्यासां ताः=सेवक के समान आश्रयदाता को पालक मानने वाली, (अहिगोपाः) अहिना मेघेन गोपा गुप्ता अच्छादिताः=मेघों से रक्षित  आच्छादित कर छिपाया है, (येन) =जिसने, (वृत्रेण) सूर्यप्रकाशावरकेन मेघेन=सूर्य के से आच्छादित मेघ के द्वारा, (निरुद्धाः) संरोधं प्रापिताः=रोके हुए, (आपः) जलानि=जलों में, (अतिष्ठन्) तिष्ठन्ति=स्थित होते हैं, (तासाम्)=उन, (अपाम्) जलानाम्=जलों से, (यत्) पूर्वोक्तम्=मेघ के, (विलम्) गर्त्तम्=छिद्र को, (अपिहितम्) आच्छादितम्=आच्छादित करते,  (आसीत्) अस्ति=हैं, (तम्)=उसे, (सविता)=सूर्य, (जघन्वान्) हन्ति हत्त्वा=मारकर, (तत्) द्वारम्=उस, (जलम्)=जल के, (गमनद्वारम्)=जाने के द्वार से, (अपववार) वृणोत्युद्घाटयति=रुकावट तोड़ देता है, (तथैव)=उसी प्रकार से, (दुष्टाचारान्)=दुष्ट आचरण वाले, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (निरुध्य)=दुष्ट आचरण से रोक के, (न्यायद्वारम्)=न्याय अर्थात् धर्ममार्ग को, (प्रकाशितम्)=प्रकाशित करते हुए, (रक्ष)=रक्षा कीजिये॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे गोपाल अपनी गौओं को अपने अनुकूल स्थान में रोक रखता और फिर उस स्थान का दरवाजा खोल के निकाल देता है और जैसे मेघ अपने मंडल में जलों का द्वार रोक के दूर करते हुए जलों को जलों को मुक्त कर देता है, वैसे ही राजपुरुषों को चाहिये कि शत्रुओं को रोककर प्रजा का निरन्तर पालन किया करें ११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सभापते) सभापते ! (यथा) जैसे (पणिनेव) गाय आदि पशुओं के व्यापारी लोगों के समान (गावः) पशुओं के (दासपत्नीः) सेवक के समान आश्रयदाता को पालक मानने वाली (अहिगोपाः) मेघों से रक्षित और आच्छादित कर छिपाया है (येन) जिस (वृत्रेण) सूर्य के समान आच्छादित मेघ के द्वारा (निरुद्धाः) रोके हुए (आपः) जलों में (अतिष्ठन्) स्थित होते हैं, (तासाम्) उन (अपाम्) जलों से (यत्) मेघ के (विलम्) छिद्र को (अपिहितम्) आच्छादित करते  (आसीत्) हैं। (तम्) उसे (सविता) सूर्य (जघन्वान्) मारकर, (तत्) उस (जलम्) जल के (गमनद्वारम्) जाने के द्वार से (अपववार) रुकावट तोड़ देता है। (तथैव) उसी प्रकार से (दुष्टाचारान्) दुष्ट आचरण वाले (शत्रून्) शत्रुओं को (निरुध्य) दुष्ट आचरण से रोक के (न्यायद्वारम्) न्याय अर्थात् धर्ममार्ग को (प्रकाशितम्) प्रकाशित करते हुए (रक्ष) रक्षा कीजिये॥११॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दासपत्नीः) दास आश्रयदाता पतिर्यासां ताः। अत्र सुपांसुलुग इति पूर्वसवर्णादेशः। (अहिगोपाः) अहिना मेघेन गोपा गुप्ता अच्छादिताः (अतिष्ठन्) तिष्ठन्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (निरुद्धाः) संरोधं प्रापिताः (आपः) जलानि (पणिनेव) गोपालेन वणिग्जनेनेव (गावः) पशवः (अपाम्) जलानाम् (विलम्) गर्त्तम् (अपिहितम्) आच्छादितम् (यत्) पूर्वोक्तम् (आसीत्) अस्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (वृत्रम्) सूर्यप्रकाशावरकं मेघम् (जघन्वान्) हन्ति। अत्र वर्त्तमाने लिट्। (अप) दूरीकरणे (तत्) द्वारम् (ववार) वृणोत्युद्घाटयति। अत्र वर्त्तमाने लिट् यास्कमुनिरिमं मंत्रमेवं व्याचष्टे दासपत्नीर्दासाधिपत्न्यो दासो दस्यते रूपं *दासयति कर्म्माण्यहिगोपा अतिष्ठन्नहिना गुप्ताः। अहिरवनादेत्यन्तरिक्षे ऽयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव निर्ह्वसितोपसर्ग आहंतीति। निरुद्धा आपः पणिनेव गावः। पणिर्वणिग्भवति पणिः पणनाद्वणिक् पण्यं नेनेक्ति। अपां बिलमपिहितं यदासीत्। बिलं भरं भवति बिभर्त्तेवृत्रं जघ्निवानपववार। निरु० २।१७। ॥११॥ *[वै० यं० निरुक्ते 'रूपदासयतीति' पाठो वर्तते।सं०]
    विषयः- पुनः सूर्यस्तं प्रति किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सभापते यथा पणिनेव गावो दासपत्न्योऽहिगोपा येन वृत्रेण निरुद्धा आपोऽतिष्ठन् तिष्ठन्ति तासामपां यद्बिलमपिहितमासीदस्ति तं सविता जघन्वान् हन्ति हत्त्वा तज्जलगमनद्वारमपववारापवृणोत्युद्घाटयति तथैव दुष्टाचाराञ् शत्रून्निरुध्य न्यायद्वारं प्रकाशितं रक्ष ॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा गोपालः स्वकीया गाः स्वामीष्टे स्थाने निरुणद्धि पुनर्द्वारं चोद्घाट्य मोचयति यथा वृत्रेण मेघेन स्वकीयमण्डलेऽपां द्वारमावृत्य ता वशं नीयन्ते यथा सूर्यस्तं मेघं ताडयति तज्जलद्वारमपावृत्यापोविमोचयति तथैव राजपुरुषैः शत्रून्निरुध्य सततं प्रजाः पालनीयाः ॥११॥

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    विषय

    वृत्रहनन का रहस्य ।

    भावार्थ

    (पणिनः इव) जिस प्रकार वणिक् जनों, या पशुओं के व्यापारी से (निरुद्धाः) रोकी हुई (गावः) गौएं (अतिष्ठन्) निश्चेष्ट खड़ी रहती हैं और जिस प्रकार (अहिगोपाः) मेघ में सुरक्षित (अपः) जल-धाराएं अन्तरिक्ष में रुकी खड़ी रहती हैं, नीचे नहीं गिरती उसी प्रकार (दासपत्नीः) आश्रय रक्षा के देने वाले राजा या सेनापति को अपना पति पालक मानने वाली, (अहिगोपाः) आक्रामक शत्रु द्वारा सुरक्षित रहकर (आपः) सेनाएं (अतिष्ठन्) युद्ध में स्थिर भाव से रुकी खड़ी रहती हैं। और (यत्) जो (अपां बिलम्) जलों के रहने का अवकाश (अपिहितम्) ढका रहता (आसीत्) है (तत्) उसको (वृत्रं) बहने से वारण करने वाले कारण को (जघन्वान्) आघात करने वाला विद्युत् और वायु (अप ववार) दूर कर देता है। उसी प्रकार (अपां यत् बिलम्) सेना जनों का जो भरण पोषक करने वाला साधन (अपिहितं आसीत्) ढका हुआ सुरक्षित रूप से होता है (तत् वृत्रम्) उस शत्रु को (जधन्वान्) प्रबल हन्ता राजा (अपववार) मार कर दूर कर देता है। अर्थात् पालक सेना पति ही सेनाओं को रोके रहता है। प्रबल राजा उसको मार कर अधीन सेनाओं का नाश करता है वा भय से भगा देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा गोपाल आपल्या गाईंना नियंत्रणाखाली योग्य स्थानी ठेवतो व नंतर बाहेर काढतो, जसे मेघ जलाला नियंत्रणात ठेवतात व सूर्य मेघांना प्रताडित करतो व अडथळा नष्ट करून वृष्टी करवितो तसेच राजपुरुषांनी शत्रूंना ताब्यात ठेवावे व प्रजेचे यथायोग्य पालन करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Like women supported by their husbands, the waters stay supported by the cloud, hidden in its darkness like cows in the stall guarded by the cowherd or the trader. The water-hold that was hidden and closed was opened and released through the door by the slayer of Vrtra, Indra, the sun.

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    Subject of the mantra

    What does the Sun do against the cloud then? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sabhāpate) Chairman of the Assembly, (yathā)=as, (paṇineva)=like cattle traders, (gāvaḥ)=of animals, (dāsapatnīḥ)=like a servant considering custodian as one who nourishes, (ahigopāḥ)= protected and covered with clouds, (yena)=which, (vṛtreṇa)=by a cloud covered like the sun, (niruddhāḥ)=withheld, (āpaḥ)=in waters, (atiṣṭhan)=are located, (tāsām)=those, (apām)=by waters, (yat)=of the cloud, (vilam)=to the hole, (apihitam)=cover, (āsīt)=are, (tam)=to that,(savitā)=Sun, (jaghanvān)=having killed, (tat)=that, (jalam)=of water, (gamanadvāram)=through the door, (apavavāra)=breaks the barrier, (tathaiva)=in the same way, (duṣṭācārān)=ill-mannered (śatrūn)=to the enemies, (nirudhya)=to stop from evil conduct, (nyāyadvāram)=justice means the path of righteousness, (prakāśitam)=by manifesting, (rakṣa)=protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the assembly! Like cattle traders and like servants of animals considering custodian as one who nourishes, they have protected and covered them with the clouds. Those who are situated in the waters held by the clouds covered like the Sun, covers the hole of the cloud with those waters. By hitting him the Sun breaks the barrier from the entrance of that water. In the same way protect the enemies of evil conduct by lighting the path of righteousness, in other words, protecting them from evil conduct.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and latent vocal simile as figurative in this mantra. Just as, one who nourishes cows keeps his cows in his favourable place and then opens the door of that place and removes them, and as a cloud frees the waters by stopping the gate of the waters in his group, so should the royal kings do by stopping the enemies and nourish the subjects continuously.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does the Sun do towards the cloud is taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, as the cows are confined by the cowherd or a trader in a cowshed, the waters, whose husband is the cloud by which they are covered, stand obstructed, but by slaying Vritra (Cloud), Indra (the Sun) sets open the cave that confines them and after he (Sun) has killed the cloud, he sets open the door of their going out, in which the floods had been imprisoned, in the same manner, you should captivate and keep in prison un-righteous enemies and should keep open always the door of justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दासपत्नी:) दास आश्रयदाता पतिर्यासां ताः । = Waters whose husband (cloud) is giver of shelter to them (अहिगोपाः) अहिना मेघेन गोपाः-गुप्ता: आच्छादिताः = Covered by the cloud. विलम्-गर्तम् = Pit or hole. (वृत्रम्) सूर्यप्रकाशावरकं मेघम् = The cloud which covers the light of the sun. (पणिना) गोपालेन वणिग्जनेन वा = By cowherd or a trader. पण-व्यवहारे = A dealer.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a cowherd keeps his cows confined for some time in a suitable place and sets them free by opening the door of the cowshed, as by Vritra ( cloud) the waters are kept under control (so to speak ) by imprisoning them in a way, as the Sun destroys the cloud and sets free the imprisoned waters by opening their door, in the same way, the officers of the state should captivate and keep under subjugation their un-righteous enemies and should constantly guard and preserve their subjects.

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