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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न॒दं न भि॒न्नम॑मु॒या शया॑नं॒ मनो॒ रुहा॑णा॒ अति॑ य॒न्त्यापः॑ । याश्चि॑द्वृ॒त्रो म॑हि॒ना प॒र्यति॑ष्ठ॒त्तासा॒महिः॑ पत्सुतः॒शीर्ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒दम् । न । भि॒न्नम् । अ॒मु॒या । शया॑नम् । मनः॑ । रुहा॑णाः । अति॑ । य॒न्ति॒ । आपः॑ । याः । चि॒त् । वृ॒त्रः । म॒हि॒ना । प॒रि॒ऽअति॑ष्ठत् । तासा॑म् । अहिः॑ । प॒त्सु॒तः॒शीः । ब॒भू॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नदम् । न । भिन्नम् । अमुया । शयानम् । मनः । रुहाणाः । अति । यन्ति । आपः । याः । चित् । वृत्रः । महिना । परिअतिष्ठत् । तासाम् । अहिः । पत्सुतःशीः । बभूव॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (नदम्) महाप्रवाहयुक्तम् (न) इव (भिन्नम्) विदीर्णतटम् (अमुया) पृथिव्या सह (शयानम्) कृतशयनम् (मनः) अन्तःकरणमिव (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यबलन्त्योनद्यः (अति) अतिशयार्थे (यन्ति) गच्छन्ति (आपः) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (याः) मेघमण्डलस्थाः (चित्) एव (वृत्रः) मेघः (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसोवर्णलोपोवा इतिमकारलोपः। (पर्यतिष्ठत्) सर्वत आवृत्यस्थितः (तासाम्) अपां समूहः (अहिः) मेघः (पत्सुतःशीः) यः पादेष्वधःशेते सः। अत्र सप्तम्यन्तात्पादशब्दात्। इतराभ्योपि दृश्यन्ते। अ० ५।३।१४। इति तसिल्। वाछन्दसिसर्वेविधयोभवन्ति इति विभक्त्यलुक्। शौङ्धातोःक्विप् च। (बभूव) भवति। अत्र लडर्थे लिट् ॥८॥

    अन्वयः

    पुनस्तौ परस्परं किं कुरुत इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    भो महाराज त्वं यथायं वृत्रो मेघो महिना स्वमहिम्ना पर्यतिष्ठन्निरोधको भूत्वा सर्वतः स्थितोहिर्हतः सन् तासामपां मध्ये स्थितः पत्सुतःशीर्बभूव भवति तस्य शरीरं मनोरुहाणा याश्चिदेवान्तरिक्षस्था आपो भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं नेवामुया भूम्या सह वर्त्तन्ते तथैव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यावज्जलं सूर्येण छेदितं वायुना सह मेघमण्डलं गच्छति तावत्सर्वं मेघ एव जायते यदा जलाशयोऽतीव वर्द्धते तदा सघनपृतनः सन् स्वविस्तारेण सूर्यज्योतिर्निरुणद्धि तं यदा सूर्यः स्वकिरणैश्छिनत्ति तदायमितस्ततो जलानि महानंद तडागं समुद्रं वा प्राप्य शेरते सोपि पृथिव्यां यत्र तत्र शयानः सन् मनुष्यादीनां पादाध इव भवत्येवमधार्मिकोप्येधित्वा सद्यो नश्यति ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे दोनों परस्पर क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    भो राजाधिराज आप जैसे यह (वृत्रः) मेघ (महिना) अपनी महिमा से (पर्यतिष्ठत्) सब ओर से एकता को प्राप्त और (अहिः) सूर्य के ताप से मारा हुआ (तासाम्) उन जलों के बीच में स्थित (पत्सुतःशीः) पादों के तले सोनेवाला सा (बभूव) होता है उस मेघ का शरीर (मनः) मननशील अन्तःकरण के सदृश (रुहाणाः) उत्पन्न होकर चलनेवाली नदी जो अन्तरिक्ष में रहनेवाले (चित्) ही (याः) जल (भिन्नम्) विदीर्ण तटवाले (शयानं) सोते हुए के (न) तुल्य (नदम्) महाप्रवाहयुक्त नद को (यन्ति) जाते और वे जल (न) (अमुया) इस पृथिवी के साथ प्राप्त होते हैं वैसे सब शत्रुओं को बाँध के वश में कीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। जितना जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पवन के साथ मेघमण्डल को जाता है वह सब जल मेघरूप ही हो जाता है जब मेघ के जल का समूह अत्यन्त बढ़ता है तब मेघ घनी-२ घटाओं से घुमड़ि-२ के सूर्य के प्रकाश को ढांप लेता है उसको सूर्य अपनी किरणों से जब छिन्न-भिन्न करता है तब इधर-उधर आए हुए जल बड़े-२ नद ताल और समुद्र आदि स्थानों को प्राप्त होकर सोते हैं वह मेघ भी पृथिवी को प्राप्त होकर जहां तहां सोता है अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों के पैरों में सोता सा मालूम होता है वैसे अधार्मिक मनुष्य भी प्रथम बढ़ के शीघ्र नष्ट हो जाता है ॥८॥

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    विषय

    पावों - तले न कि सिर पर

    पदार्थ

     

    १. जब वृत्र पराजित हो जाता है तब उस स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि (नदं न भिन्नम्) - वह नदी जिसके कि किनारे टूट जाते हैं, जिस प्रकार भूमि पर बिखरी - सी पड़ी होती है, अर्थात् जिस प्रकार उसका जल इधर - उधर फैलकर नष्ट वेगवाला हो जाता है उसी प्रकार (अमुया शयानम्) - [नष्ट होकर] इस पृथिवी के साथ सोते हुए इस काम को (आपः) - कर्मों में लगी हुई प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (अति यन्ति) - लाँधकर पार हो जाती हैं । कोई समय था जबकि किनारों के अन्दर चलती हुई नदी के वेग के समान काम का वेग भी प्रबल था, परन्तु अब तो इन्द्र के क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा इस वृत्र पर आघात करके इसके अवयवों को इधर - उधर फेंक दिया है । यह अब टूटे हुए किनारोंवाली नदी के समान हो गया है । इसके छिन्न हो चुके वेग को लाँघना अब कठिन नहीं रहा । 

    २. इसके आक्रमण से अब तक प्रजाएँ दबी - सी हुई थीं, परन्तु अब इसके विनाश से (मनो रुहाणाः) - वे प्रजाएँ अपने मनो को फिर से उन्नति - पथ पर आरोहण करनेवाला बना पाई हैं । उनका मन अब दबा हुआ नहीं, अपितु खूब उत्साहयुक्त है । काम के आक्रमण से जो उन्नति रुकी हुई थी वह अब इस काम के विनाश से फिर दिन दूनी रात चौगुनी होने लगी है । 

    ३. यह (वृत्रः) - काम (याः चित्) - जिनकी प्रजाओं को (महिना) - अपनी शक्ति की महिमा से (पर्यतिष्ठत्) - पूरी तरह से चारों ओर से घेर - घारकर टिका हुआ था, आज वह (अहिः) - [आहन्ति] आक्रमण करनेवाला काम (तासाम्) - उन्हीं प्रजाओं के (पत्सुतः शीः) - [पादस्याधः शयानः] पावों - तले सोनेवाला (बभूव) - हो गया है, अर्थात् आज उन प्रजाओं ने इस काम को पावों - तले कुचल दिया है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - काम का पराजय होने पर प्रजाओं के मन पुनः उन्नति - पथ पर आरोहण करनेवाले बनते हैं । यह सिर पर चढ़नेवाला काम आज पाँवों - तले सोया पड़ा है । 

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    विषय

    फिर वे दोनों परस्पर क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    भो महाराज त्वं यथा यं वृत्रः मेघः महिना स्वमहिम्ना पर्रि अतिष्ठत् निरोधकः भूत्वा सर्वतः स्थितः अहि हतः सन् तासाम् अपाम् मध्ये स्थितः पत्सुतः शीः बभूव भवति तस्य शरीरं मनोरुहाणा याःचित् एव अन्तरिक्षस्था आपः भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं न इव अमुया भूम्या सहवर्त्तन्ते तथा एव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय ॥८॥

    पदार्थ

    (भो)=हे  (महाराज)=राजाधिराज! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (यम्)=जिस, (वृत्रः) मेघः=मेघ की, (महिना) स्वमहिम्ना=अपनी महिमा से, (परि)=सब ओर से, (अतिष्ठत्)=ठहरा हुआ, (निरोधकः)=निरोधक, (भूत्वा)=होकर, (सर्वतः)=हर ओर से, (स्थितः)=स्थित, (अहि)=मेघ को, (हतः+सन्)=सूर्य के ताप से छिन्न-भिन्न करते हुए, (तासाम्)=उन, (अपाम्)=जलों के, (मध्ये)=मध्य में, (स्थितः)=स्थित, (पत्सुतःशीः) यः पादेष्वधःशेते सः=पादों के तले सोनेवाले, (बभूव) भवति=हो। (तस्य)=उसका, (शरीरम्)=शरीर और, (मनः) अन्तःकरणमिव=अन्तःकरण जैसे, (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यबलन्त्योनद्यः[प्रादुर्भवन्ति अबलन्त्यः नदयः]= उत्पन्न होकर बल से कमजोर पड़ गयी नदियां, (याः) मेघमण्डलस्थाः=मेघमण्डल में स्थित, (चित्) एव=ही, (अन्तरिक्षस्था)=अन्तरिक्ष में स्थित, (आपः) जलानि=जल, (भिन्न)=भिन्न, (शयानम्) कृतशयनम्=सोई पड़ी, अर्थात् मन्दगति से, (यन्ति) गच्छन्ति=बहती हैं, (नदम्) महाप्रवाहयुक्तम्=महा प्रवाह से युक्त, (न) इव=जैसी, (अमुया) पृथिव्या सह=पृथिवी के साथ, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (सर्वान्)=सब, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (बद्ध्वा)= बाँध के, (वशम्)=वश में, (नय)=लाइये॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। जितना जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पवन के साथ मेघमण्डल को जाता है वह सब जल मेघरूप ही हो जाता है जब मेघ के जल का समूह अत्यन्त बढ़ता है तब मेघ सेना केरूप में बनकर अपने विस्तार से सूर्य के प्रकाश को रोक लेता है। उसको  जब सूर्य अपनी किरणों से छिन्न-भिन्न करता है, तब यह इधर से उधर जल के बड़े- बड़े नद, ताल और समुद्र आदि स्थानों को प्राप्त हो करके सोते हैं, अर्थात्  ठहरते हैं। वह मेघ भी पृथिवी को प्राप्त होकर यहां वहां जाते  हुए मनुष्य आदि प्राणियों के जैसे पैरों के नीचे होता है, ऐसे ही अधार्मिक मनुष्य भी रखे हुए शीघ्र नष्ट हो जाता है ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (भो) हे  (महाराज) राजाधिराज ! (त्वम्) आप (यथा) जैसे और (यम्) जिस (वृत्रः) मेघ की (महिना) अपनी महिमा से (परि) सब ओर से (अतिष्ठत्) ठहरे हुए (निरोधकः)  निरोधक (भूत्वा) होकर (सर्वतः) हर ओर (स्थितः) स्थित (अहि) मेघ को (हतः+सन्) सूर्य के ताप से छिन्न-भिन्न करते हुए (तासाम्) उन (अपाम्) जलों के (मध्ये) मध्य में (स्थितः) स्थित (पत्सुतःशीः)  पादों के तले सोनेवाले (बभूव) हो। (तस्य) उसका (शरीरम्) शरीर और (मनः) अन्तःकरण जैसे मन (रुहाणाः) उत्पन्न होकर बल से कमजोर पड़ गयी नदियां (याः) मेघमण्डल में स्थित (चित्) ही (अन्तरिक्षस्था) अन्तरिक्ष में स्थित (आपः) जल (भिन्न) से भिन्न (शयानम्) सोई पड़ी, अर्थात् मन्दगति से, (यन्ति) बहती हैं। (नदम्) महा प्रवाह से युक्त नदियां (न) जैसे (अमुया) पृथिवी के साथ बहती हैं, (तथा) वैसे (एव)  ही (सर्वान्) सब (शत्रून्) शत्रुओं को (बद्ध्वा) बाँध के (वशम्) वश में (नय) लाइये॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नदम्) महाप्रवाहयुक्तम् (न) इव (भिन्नम्) विदीर्णतटम् (अमुया) पृथिव्या सह (शयानम्) कृतशयनम् (मनः) अन्तःकरणमिव (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यबलन्त्योनद्यः (अति) अतिशयार्थे (यन्ति) गच्छन्ति (आपः) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। निघं० १।१२। (याः) मेघमण्डलस्थाः (चित्) एव (वृत्रः) मेघः (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसोवर्णलोपोवा इतिमकारलोपः। (पर्यतिष्ठत्) सर्वत आवृत्यस्थितः (तासाम्) अपां समूहः (अहिः) मेघः (पत्सुतःशीः) यः पादेष्वधःशेते सः। अत्र सप्तम्यन्तात्पादशब्दात्। इतराभ्योपि दृश्यन्ते। अ० ५।३।१४। इति तसिल्। वाछन्दसिसर्वेविधयोभवन्ति इति विभक्त्यलुक्। शौङ्धातोःक्विप् च। (बभूव) भवति। अत्र लडर्थे लिट् ॥८॥
    विषयः- पुनस्तौ परस्परं किं कुरुत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- भो महाराज त्वं यथायं वृत्रो मेघो महिना स्वमहिम्ना पर्यतिष्ठन्निरोधको भूत्वा सर्वतः स्थितोहिर्हतः सन् तासामपां मध्ये स्थितः पत्सुतःशीर्बभूव भवति तस्य शरीरं मनोरुहाणा याश्चिदेवान्तरिक्षस्था आपो भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं नेवामुया भूम्या सह वर्त्तन्ते तथैव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यावज्जलं सूर्येण छेदितं वायुना सह मेघमण्डलं गच्छति तावत्सर्वं मेघ एव जायते यदा जलाशयोऽतीव वर्द्धते तदा सघनपृतनः सन् स्वविस्तारेण सूर्यज्योतिर्निरुणद्धि तं यदा सूर्यः स्वकिरणैश्छिनत्ति तदायमितस्ततो जलानि महानंद तडागं समुद्रं वा प्राप्य शेरते सोपि पृथिव्यां यत्र तत्र यानः सन् मनुष्यादीनां पादाध इव भवत्येवमधार्मिकोप्येधित्वा सद्यो नश्यति ॥८॥ 

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    विषय

    वृष्टि विद्या का वर्णन ।

    भावार्थ

    (आपः) जलधाराएं जिस प्रकार (मनः रुहाणाः) प्रजाओं के चित्त पर चढ़ीं, अति चित्ताकर्षक होकर (अमुया) इस पृथ्वी के साथ (शयानम्) सोये हुए प्रशान्त (भिन्नं नदं) टूटे तटवाले महानद को (अतियन्ति) उसके तट तोड़कर उससे जा मिलती हैं। उसी प्रकार (आपः) सेनाएँ भी (मनः रुहाणाः) मनोरथ पर चढ़ी हुई (अमुया शयानं) इस पृथ्वी के ऊपर सोते हुए (भिन्नं नदं न) टूटे फूटे देह को प्राप्त कर (अतियन्ति) रण छोड़कर भाग जाती हैं। और (चित्) जिस प्रकार (वृत्रः) मेघ (याः) जिन जलधाराओं को (महिना) अपने बड़े भारी सामर्थ्य से (परि अतिष्ठत्) थामे रहता है (तासाम् अहिः) उनका धारण करनेवाला मेघ वज्र से ताड़ित होकर (पत्सुतःशीः) पाँवों तले (बभूव) आ पड़ता है, उसी प्रकार (वृत्रः) वर्द्धमान शत्रु (महिना) अपने बढ़े हुए सामर्थ्य से (याः चित्) जिन सेनाओं के ऊपर (परि अतिष्ठत्) सेनापति शासक रूप से रहता है (तासाम् अहिः) उनका ही वह अत्याज्य स्वामी (पत्सुतःशीः) युद्ध में पछाड़ खाकर पांवों तले रोंदा (बभूव) जाता है।

    टिप्पणी

    ‘पत्सुतःशीः’—पादशब्दस्य सप्तमीबहुवचने पदादेशे कृते इतराभ्योपि दृश्यन्ते इति सप्तम्यर्थे तसिल्। लुगभावरछान्दसः। अथवा ‘सु’ इत्युपजनः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा व उपमालंकार आहेत. जितके जल सूर्याद्वारे छिन्नभिन्न होऊन वायूबरोबर मेघमंडलात जाते ते सर्व मेघरूपच बनते. जेव्हा मेघाच्या जलाचा समूह खूप वाढतो तेव्हा मेघ दाट ढगांद्वारे सूर्याच्या प्रकाशाला झाकतो. त्याला सूर्य जेव्हा आपल्या किरणांनी छिन्नभिन्न करतो तेव्हा इकडे तिकडे पसरलेले जल मोठमोठ्या नद्या, तलाव व समुद्र इत्यादी स्थानी शयन करते व मेघही पृथ्वीवर येऊन जिकडे तिकडे शयन करतो. अर्थात माणसे इत्यादी प्राण्यांच्या पायात शयन केल्यासारखा दिसून येतो. तसे अधार्मिक माणूसही प्रथम वाढतो व नंतर लवकरच नष्ट होतो. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Like a flood let loose, the showers of rain, so soothing and beautiful to the mind, defy Vrtra, the cloud, which is now lying shattered on the ground — waters which, earlier, the cloud had held up with its own might. Their master now lies trampled under feet on the ground. (This is the fate of a presumptuous man who proudly and foolishly challenges the Almighty.)

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    Subject of the mantra

    Then, what do both of them do mutually. This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (bho)=O! (mahārāja)=a king of kings, (tvam)=you, (yathā) =as, [aura]=and, (yam)=which, (vṛtraḥ)=of the cloud, (mahinā)=in your glory, (pari)=from all sides, (atiṣṭhat)=stagnant, (nirodhakaḥ)=preventive, (bhūtvā)=being, (sarvataḥ)=from all sides, (sthitaḥ)=situated, (ahi)=to the cloud, (hataḥ+san) =dissipates by heat of the Sun, (tāsām)=those, (apām)=of waters, (madhye) =inside, (sthitaḥ)=situated, (patsutaḥśīḥ)=the one who sleeps under the feet, (tasya)=his, (śarīram)=body, [aura]=and, (manaḥ)=conscience like mind, (ruhāṇāḥ)=Rivers weakened by force, (yāḥ)=located in the cloud, (cit)=only,(antarikṣasthā)=located in space, (āpaḥ)=water,(bhinna)=different, (śayānam)= fell asleep, that is, at a slow pace, (yanti)=flow, (nadam)=rivers with great flow, (na)=as, (amuyā) =along with earth, (tathā)=in the same way, (eva) =only, (sarvān)=all, (śatrūn)=to enemies, (baddhvā)=by binding, (vaśam)=in control, (naya)=get in.

    English Translation (K.K.V.)

    O King of kings! A cloud like you and whose glory stands on all sides as a stagnant, dissipates the clouds located everywhere by the heat of the Sun. The one who lies in the middle of those waters should sleep under his feet. His body and conscience like mind were born and weakened by the force; the rivers situated in the cloud were sleeping separately from the water situated in the space, that is, they flow slowly. Like rivers with great flows that flow with the earth, in the same way by binding bring all the enemies under the control.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. All the water that dissipates from the Sun and goes to the cloud with the wind, all that water becomes a cloud, when the group of waters of the cloud increases greatly, then the cloud becomes in the form of an army and blocks the light of the Sun with its expansion. When the Sun scatters by its rays, then it sleeps, that is stays here after getting big rivers, lakes and seas etc. That cloud also attains the earth and is under the feet of human beings while going here and there, in the same way the unrighteous man also gets destroyed soon after keeping it.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do they ( Indra and Vritra) do is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O great king, as the cloud with its greatness tries to cover the sun, and then vanquished by the sun, lies down recumbent on this earth, as a river bursts through its broken banks. This Ahi (cloud) has been prostrated beneath the feet of the waters that delight the minds of men and which Vritra (cloud) by its might had obstructed. In the same manner, you should subdue all your wicked enemies by captivating them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( रुहाणा:) प्रादुर्भवन्त्यश्चलन्त्यो नद्यः, = Flowing rivers. (पत्सुतः) य: पदेष्वधः शेते सः । अत्र सप्तम्यन्तात् पादशब्दात् इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते अष्टा ५.३.१४) इति तसिल् वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति विभक्त्यलुक् । शीङ्धातो: क्विप् च ।। = Prostrated beneath the feet.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The water that goes to the sky with air, disintegrated by the Sun, becomes cloud. When the tanks and rivers become full of water, the cloud covers the light of the sun. When the sun, smites it into pieces with his rays, then it enters the banks, big rivers or the sea and sleeps there (so to say ). It may be said that it is trampled under the feet of men. In the same manner, an un-righteous person goes to ruin, having grown much for some time.

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