ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नी॒चाव॑या अभवद्वृ॒त्रपु॒त्रेन्द्रो॑ अस्या॒ अव॒ वध॑र्जभार । उत्त॑रा॒ सूरध॑रः पु॒त्र आ॑सी॒द्दानुः॑ शये स॒हव॑त्सा॒ न धे॒नुः ॥
स्वर सहित पद पाठनी॒चाऽव॑याः । अ॒भ॒व॒त् । वृ॒त्रऽपु॑त्रा । इन्द्रः॑ । अ॒स्याः॒ । अव॑ । वधः॑ । ज॒भा॒र॒ । उत्ऽत॑रा । सूः । अध॑रः । पु॒त्रः । आ॒सी॒त् । दानुः॑ । श॒ये॒ । स॒हऽव॑त्सा । न । धे॒नुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार । उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥
स्वर रहित पद पाठनीचावयाः । अभवत् । वृत्रपुत्रा । इन्द्रः । अस्याः । अव । वधः । जभार । उत्तरा । सूः । अधरः । पुत्रः । आसीत् । दानुः । शये । सहवत्सा । न । धेनुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(नीचावयाः) नीचानि वयासि यस्य मेघस्य सः। (अभवत्) भवति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (वृत्रपुत्रा) वृत्रः पुत्र इव यस्याः सा (इन्द्रः) सूर्य्यः (अस्याः) वृत्रमातुः (अव) क्रियायोगे (वधः) वधम्। अत्र हन्तेर्बाहुलकादौणादिकेऽसुनिवघादेशः। (जभार) हरति। अत्र वर्त्तमाने लिट्। हृग्रहोर्हस्य भश्छन्दसि वक्तव्यम् इति भादेशः। (उत्तरा) उपरिस्थाऽन्तरिक्षाख्या। (सूः) सूयत उत्पादयति या सा माता। अत्र #सृङ् धातोः क्विप्।* (अधरः) अधस्थः (पुत्रः) (आसीत्) अस्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (दानुः) ददाति या सा। अत्र दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३१। इति नुः प्रत्ययः। (शये) शेते। अत्र लोपस्तआत्मनेपदेषु। अ० ७।१।४१। इति लोपः। (सहवत्सा) या वत्सेनसहवर्त्तमाना (न) इव (धेनुः) यथा दुग्धदात्री गौः ॥९॥#[षूङ् धातोः।] *[धात्वादेः षः सः, अ० ६।१।६४। इति सत्त्वम्। सं०]
अन्वयः
पुनः स कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सभाध्यक्ष त्वं यथा वृत्रपुत्रा सूर्भूभिरुतरान्तरिक्षं वाऽभवदस्याः पुत्रस्य वधोवधमिन्द्रोऽवजभारानेनास्याः पुत्रोनीचावया अधर आसीत्। दानुः सहवत्साधेनुः स्वपुत्रेण सहमाता नेव शये शेते तथा स्वशत्रून् पृथिव्यासहशयानान् कुरु ॥९॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। वृत्रस्य द्वे मातरौ वर्त्तेते एका पृथिवी द्वितीयाऽन्तरिक्षं चैतयोर्द्वयोः सकाशादेव वृत्रस्योत्पत्तेः। यथाकाचिद्गौः स्ववत्सेन सह वर्त्तते तथैव यदा जलसमूहो मेघ उपरि गच्छति तदाऽन्तरिक्षाख्या माता स्वपुत्रेण सह शयाना इव दृश्यते। यदा च स वृष्टिद्वारा भूमिमागच्छति तदा भूमिस्तेन स्वपुत्रेण सह शयानेव दृश्यते। अस्य मेघस्य पितृस्थानी सूर्य्योऽस्ति तस्योत्पादकत्वात्। अस्य हि भूम्यन्तरिक्षे द्वे स्त्रियाविव वर्त्तेते यदा स जलमाकृष्य वायुद्वारान्तरिक्षे प्रक्षिपति तदा स पुत्रो मेघो वृद्धिं प्राप्य प्रमत्त इवोन्नतो भवति सूर्यस्तमाहत्य भूमौ निपातयत्येवमयं वृत्रः कदाचिदुपरिस्थः कदाचिदधःस्थो भवति तथैव राज्यपुरुषैः प्रजाकण्टकान् शत्रूनितस्ततः प्रक्षिप्य प्रजाः पालनीयाः ॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे सभापते ! (वृत्रपुत्रा) जिसका मेघ लड़के के समान है वह मेघ की माता (नीचावयाः) निकृष्ट उमरको प्राप्त हुई। (सूः) पृथिवी और (उत्तरा) ऊपरली अन्तरिक्षनामवाली (अभवत्) है (अस्याः) इसके पुत्र मेघ के (वधः) वध अर्थात् ताड़न को (इन्द्रः) सूर्य्य (अवजभार) करता है इससे इसका (नीचावयाः) निकृष्ट उमर को प्राप्त हुआ (पुत्रः) पुत्र मेघ (अधरः) नीचे (आसीत्) गिर पड़ता है और जो (दानुः) सब पदार्थों की देनेवाली भूमि जैसे (सहवत्सा) बछड़े के साथ (धेनुः) गाय हो (न) वैसे अपने पुत्र के हाथ (शये) सोती सी दीखती है वैसे आप अपने शत्रुओं को भूमि के साथ सोते के सदृश किया कीजिये ॥९॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। मेघ की दो माता हैं एक पृथिवी दूसरी अन्तरिक्ष अर्थात् इन्हीं दोनों से मेघ उत्पन्न होता है जैसे कोई गाय अपने बछड़े के साथ रहती है वैसे ही जब जल का समूह मेघ अन्तरिक्ष में जाकर ठहरता है तब उसकी माता अन्तरिक्ष अपने पुत्र मेघ के साथ और जब वह वर्षा से भूमि को आता है तब भूमि उस अपने पुत्र मेघ के साथ सोती सी दीखती है इस मेघ का उत्पन्न करनेवाला सूर्य है इसलिये वह पिता के स्थान में समझा जाता है उस सूर्य्य की भूमि वा अन्तरिक्ष दो स्त्री के समान हैं वह पदार्थों से जल को वायु के द्वारा खींचकर जब अन्तरिक्ष में चढ़ाता है जब वह पुत्र मेघ प्रमत्त के सदृश बढ़कर उठता और सूर्य के प्रकाश को ढकल्लेता है तब सूर्य्य उसको मारकर भूमि में गिरा देता अर्थात् भूमि में वीर्य छोड़ने के समान जल पहुंचाता है इसी प्रकार यह मेघ कभी ऊपर कभी नीचे होता है वैसे ही राजपुरुषों को उचित है कि कंटकरूप शत्रुओं को इधर-उधर निर्बीज करके प्रजा का पालन करें ॥९॥
विषय
'माता व पुत्र' दोनों का अन्त
पदार्थ
१. यहाँ प्रस्तुत मन्त्र में 'वृत्र' की माता का भी उल्लेख है । 'वृत्र' काम का ही नाम है और इसकी माता आसक्ति है - 'संगात् संजायते कामः' । यह आसक्ति प्रायः अवाञ्छनीय वस्तुओं के प्रति ही होती है । संसार में प्रायः हीनाकर्षण ही हैं । यहाँ मन्त्र में इसे 'नीचावयाः' कहा गया है । नीच है (वयस्) - मार्ग [way] [नीयते गम्यते अस्मिन्] जिसका, ऐसी यह (वृत्रपुत्रा) - वृत्र नामक पुत्रवाली आसक्ति (अभवत्) - है । ज्ञान पर आवरणभूत होने से कामवासना 'वृत्र' है । आसक्ति इसे जन्म देती है । यह आसक्ति अपने नीचे कामवासना को उसी प्रकार छिपाये हुए है जैसे कोई माता बच्चे को गोद में लिये हुए होती है ।
२. (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय पुरुष (अस्याः) - इस आसक्ति के (अव) - नीचे (वधः) - अपने वज्र नामक अस्त्र को (जभार) - [जहार] प्रहत करता है, अर्थात् आसक्ति के नीचे छिपे इस काम को यह क्रियाशीलतारूप वन द्वारा नष्ट कर देता है ।
३. इस वृत्र के नाश के समय (सूः उत्तरा) - आसक्तिरूप माता ऊपर थी, (पुत्रः) - वृत्र [काम] नामक पुत्र (अधरः आसीत्) - नीचे था । वृत्र के नष्ट हो जाने पर यह आसक्ति जोकि (दानुः) - [दाप् लवने] सब उत्तमताओं व दिव्यगुणों का खण्डन करनेवाली थी, (शये) - उसी हृदयस्थली में निवास कर रही है, उसी प्रकार (न) - जैसे कि (सहवत्सा धेनुः) - बछड़े सहित एक नवसूतिका गौ हो । गौ को बछड़ा प्रिय है, बछड़े के मर जाने से वह दुः खी होती है । अपने नीचे उसे छिपाना चाहती है, परन्तु आखिर उस मृत बछड़े को तो फेंकना ही होगा । इस मृत पुत्र की विरक्ति में आसक्ति भी कुछ परिवर्तित - से जीवनवाली हो जाती है । यह आसक्ति काम के नष्ट हो जाने पर प्रभु के प्रति लगाव के रूप में होकर सचमुच "उत्तरा" - उत्कृष्ट हो जाती है, आसक्ति मानो नष्ट हो जाती है और भक्ति का उदय हो जाता है । आसक्ति ही भक्ति बन जाती है । काम गया, आसक्ति भी गई । काम नष्ट होकर प्रेम हो गया और आसक्ति नष्ट होकर भक्ति बन गई । प्रेम 'बछड़ा' है तो भक्ति 'धेनु' है । अब हमारे हृदय में इस सहवत्सा घेनु का - प्रेममयी भक्ति का निवास है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम काम को नष्ट करके आसक्ति को भक्ति के रूप में परिवर्तित करनेवाले हों । भक्त वह है जो सभी से प्रेम करता है [सर्वभूतहिते रतः] ।
विषय
फिर वह कैसा होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सभाध्यक्ष त्वं यथा वृत्रपुत्रा सूः भूमिः उत्तरान्तरिक्षं वा अभवत् अस्याः पुत्रस्य वधः वधम् इन्द्रः अव जभार अनेन अस्याः पुत्रः नीचावया अधर आसीत्। दानुः सहवत्सा धेनुः स्वपुत्रेण सह माता न इव शये शेते तथा स्वशत्रून् पृथिव्या सह शयानान् कुरु ॥९॥
पदार्थ
हे (सभाध्यक्ष)=सभापते ! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (वृत्रपुत्रा) वृत्रः पुत्र इव यस्याः सा=जिसका मेघ पुत्र के समान है वह, (सूः) सूयत उत्पादयति या सा माता=मेघ की माता, (भूमिः)=भूमि में, (वा)=या, (उत्तरा) उपरिस्थाऽन्तरिक्षाख्या= ऊपर स्थित अन्तरिक्ष नामक स्थान में, (अभवत्) भवति=हुई है, (अस्याः) वृत्रमातुः=इस मेघ माता के, (पुत्रस्य)=पुत्र का, (वधः) वधम्=वध, (इन्द्रः) सूर्य्यः=सूर्य्य, (अव+जभार) क्रियायोगे हरति=हर लेता है, (अनेन)=इसके, (पुत्रः)=पुत्र के, (नीचावयाः) नीचानि वयासि यस्य मेघस्य सः=निकृष्ट आयु को प्राप्तहुआ मेघ, (अधरः) अधस्थः=नीचे स्थित, (आसीत्) अस्ति=है, (दानुः) ददाति या सा=सब पदार्थों की देनेवाली भूमि जैसे, (सहवत्सा) या वत्सेनसहवर्त्तमाना=जो अपने बछड़े के साथ वर्त्तमान, (धेनुः) यथा दुग्धदात्री गौः=दूध देने वाली गौ, (शये) शेते=सोती है, (तथा)=वैसे ही, (स्वशत्रून्)=अपने शत्रुओं के साथ, और (पृथिव्या)=पृथिवी के, (सह)=साथ, (शयानान्)=सोने का कार्य, (कुरु)=करो॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। मेघ की दो माता हैं, एक पृथिवी और दूसरी अन्तरिक्ष, इन्हीं दोनों से समीपता से मेघ उत्पन्न होता है। जैसे कोई गाय अपने बछड़े के साथ वर्त्तमान रहती है, वैसे ही जब जल का समूह मेघ के ऊपर जाता है। तब अन्तरिक्ष नाम की माता अपने पुत्र मेघ के साथ सोई हुई जैसी दिखाई देती है। और जब वह वर्षा द्वारा भूमि में आ जाती है तब भूमि उसे अपने पुत्र मेघ के साथ सोत हुआ जैस दिखता है। इस मेघ का उसके उत्पादक होने से अभिभावक सूर्य है। इसकी निश्चित रूप से भूमि और अन्तरिक्ष दो स्त्रियों के समान हैं। जब वह जल को खींचकर वायु से अन्तरिक्ष में अच्छी तरह से बिखेर देता है, तब वह पुत्र मेघ वृद्धि को प्राप्त करके प्रमत्त के समान बढ़ा हुआ हो जाता है। सूर्य उसको मारकर भूमि में गिरा देता है और यह मेघ कभी ऊपर कभी नीचे होता है, वैसे ही राजपुरुषों के द्वारा प्रजा के कंटकरूप शत्रुओं को इधर-उधर दूर करके प्रजा का पालन करना चाहिए ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सभाध्यक्ष) सभापते ! (त्वम्) आप (यथा) जैसे (वृत्रपुत्रा) जिस मेघ के पुत्र समान हो। (सूः) मेघ की माता (भूमिः) भूमि में (वा) या (उत्तरा) ऊपर स्थित अन्तरिक्ष नामक स्थान में (अभवत्) हुई है। (अस्याः) इस मेघ की माता के (पुत्रस्य) पुत्र का (वधः) वध करने अथवा छिन्न-भिन्न [करने के लिए] (इन्द्रः) सूर्य (अव+जभार) प्रहार करता है। (अनेन) इसके (पुत्रः) पुत्र की (नीचावयाः) निकृष्ट आयु को प्राप्त हुआ मेघ (अधरः) नीचे स्थित (आसीत्) है। (दानुः) सब पदार्थों की देनेवाली भूमि (सहवत्सा) अपने बछड़े के साथ वर्त्तमान (धेनुः) जैसे दूध देने वाली गाय (शये) सोती है, (तथा) वैसे ही (स्वशत्रून्) अपने शत्रुओं के साथ और (पृथिव्या) पृथिवी के (सह) साथ (शयानान्) सोने का कार्य (कुरु) करे॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नीचावयाः) नीचानि वयासि यस्य मेघस्य सः। (अभवत्) भवति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (वृत्रपुत्रा) वृत्रः पुत्र इव यस्याः सा (इन्द्रः) सूर्य्यः (अस्याः) वृत्रमातुः (अव) क्रियायोगे (वधः) वधम्। अत्र हन्तेर्बाहुलकादौणादिकेऽसुनिवघादेशः। (जभार) हरति। अत्र वर्त्तमाने लिट्। हृग्रहोर्हस्य भश्छन्दसि वक्तव्यम् इति भादेशः। (उत्तरा) उपरिस्थाऽन्तरिक्षाख्या। (सूः) सूयत उत्पादयति या सा माता। अत्र #सृङ् धातोः क्विप्।* (अधरः) अधस्थः (पुत्रः) (आसीत्) अस्ति। अत्र वर्त्तमाने लङ्। (दानुः) ददाति या सा। अत्र दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३१। इति नुः प्रत्ययः। (शये) शेते। अत्र लोपस्तआत्मनेपदेषु। अ० ७।१।४१। इति लोपः। (सहवत्सा) या वत्सेनसहवर्त्तमाना (न) इव (धेनुः) यथा दुग्धदात्री गौः ॥९॥#[षूङ् धातोः।] *[धात्वादेः षः सः, अ० ६।१।६४। इति सत्त्वम्। सं०]
विषयः- तत्रादाविन्द्रशब्देन सूर्यलोकदृष्टान्तेन राजगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे सभाध्यक्ष त्वं यथा वृत्रपुत्रा सूर्भूभिरुतरान्तरिक्षं वाऽभवदस्याः पुत्रस्य वधोवधमिन्द्रोऽवजभारानेनास्याः पुत्रोनीचावया अधर आसीत्। दानुः सहवत्साधेनुः स्वपुत्रेण सहमाता नेव शये शेते तथा स्वशत्रून् पृथिव्यासहशयानान् कुरु ॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। वृत्रस्य द्वे मातरौ वर्त्तेते एका पृथिवी द्वितीयाऽन्तरिक्षं चैतयोर्द्वयोः सकाशादेव वृत्रस्योत्पत्तेः। यथाकाचिद्गौः स्ववत्सेन सह वर्त्तते तथैव यदा जलसमूहो मेघ उपरि गच्छति तदाऽन्तरिक्षाख्या माता स्वपुत्रेण सह शयाना इव दृश्यते। यदा च स वृष्टिद्वारा भूमिमागच्छति तदा भूमिस्तेन स्वपुत्रेण सह शयानेव दृश्यते। अस्य मेघस्य पितृस्थानी सूर्य्योऽस्ति तस्योत्पादकत्वात्। अस्य हि भूम्यन्तरिक्षे द्वे स्त्रियाविव वर्त्तेते यदा स जलमाकृष्य वायुद्वारान्तरिक्षे प्रक्षिपति तदा स पुत्रो मेघो वृद्धिं प्राप्य प्रमत्त इवोन्नतो भवति सूर्यस्तमाहत्य भूमौ निपातयत्येवमयं वृत्रः कदाचिदुपरिस्थः कदाचिदधःस्थो भवति तथैव राज्यपुरुषैः प्रजाकण्टकान् शत्रूनितस्ततः प्रक्षिप्य प्रजाः पालनीयाः ॥९॥
विषय
वृष्टि विद्या का वर्णन ।
भावार्थ
(इन्द्रः) तेजस्वी सूर्य जिस प्रकार (अस्याः) इस अन्तरिक्ष रूप मेघ की उत्पादक भूमि पर (वधः) अपने आघातकारी विद्युत् आदि का (अव जभार) प्रहार करता है जब (वृत्रपुत्रा) अन्तरिक्ष को ढांप लेने वाले मेघ को पुत्र के समान उत्पन्न करनेवाली अन्तरिक्ष भूमि भी (नीचा वयाः) जल को नीचे गिरा देती है, मानों स्वयं मरसी जाती है। तब (उत्तरासूः) ऊपर की अन्तरिक्ष रूप माता तो ऊपर रहती है और (पुत्रः) उसका पुत्र मेघ (अधरः आसीत्) नीचे आ पड़ता है। तब (सहवत्सा न धेनुः) बछड़े सहित गाय के समान (दानुः) वह खण्डित वृत्र, माता के नीचे ही (शये) पड़ा रहता है। इसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् धार्मिक राजा (अस्याः) इस पृथिवी के ऊपर अपना (वधः अव जभार) शस्त्र प्रहार करता है और (वृत्रपुत्रा) बढ़ते उमढ़ते शत्रु को अपने पुत्र के समान गोद या बीच में लिए सेना भी (नीचावयाः अभवत्) निम्न, बलहीन हो जाती है। उस समय (सूः) उस सेनापति को अभिषेक करनेवाली सेना तो (उत्तरा) उठी खड़ी रहती है और (पुत्रः) उसका पुत्र के समान प्रिय अथवा सेना के पुरुषों का कार्यकर्ता, सेनापति (अधरः आसीत्) नीचे गिरा होता है। उस समय (दानुः) वह सेना खण्डित बल होकर (सहवत्सा धेनुः न) बछड़े सहित गाय के समान (शये) खड़ी रहती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. मेघाच्या दोन माता आहेत. एक पृथ्वी, दुसरी अंतरिक्ष अर्थात याच दोघींपासून मेघ उत्पन्न होतो. जशी एखादी गाय वासराबरोबर राहते तसेच जेव्हा जलसमूह मेघ अंतरिक्षात असतो तेव्हा त्याची अंतरिक्ष माता आपला पुत्र मेघ याच्याबरोबर असते व जेव्हा तो वृष्टीद्वारे भूमीवर पडतो तेव्हा भूमी त्या आपल्या पुत्र मेघाबरोबर पहुडल्यासारखी दिसते. मेघाला उत्पन्न करणारा सूर्य आहे, त्यासाठी तो पित्याच्या स्थानी आहे. सूर्याला भूमी व अंतरिक्ष अशा दोन स्त्रिया आहेत. तो जलाला पदार्थापासून वायूद्वारे अंतरिक्षात खेचतो व मेघ उन्मत्त पुत्राप्रमाणे सूर्याच्या प्रकाशाला झाकून टाकतो. तेव्हा सूर्य त्याचे हनन करतो व भूमीवर ढकलून देतो. अर्थात जल वीर्याप्रमाणे भूमीत पोहोचते. याप्रकारे मेघ कधी वर तर कधी खाली जातो तसे राजपुरुषांनी इकडे तिकडे असलेल्या कंटकरूपी शत्रूंना पराजित करून प्रजेचे पालन करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The earth is the mother of the cloud, below. The other is the sky up on high. Indra, the sun, strikes Vrtra, the cloud, with its thunderbolt in the sky and the cloud comes down with the showers. The earth lies with the cloud like a cow sleeping with its calf.$(The presumptuous ruler who, thrown up by his forces, challenges the world ruler meets a fate like the cloud’s with his forces.)
Subject of the mantra
Then, what kind of that (cloud) is ? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabhādhyakṣa)=Commander, (tvam)=you, (yathā)=as, (vṛtraputrā)=are like which cloud's son, (sūḥ)=mother of the cloud, (bhūmiḥ)=of the earth, (uttarā)=in a place called space above, (vā)=or, (abhavat)=has happened, (asyāḥ)=mother of this cloud, (putrasya)=of the son, (vadhaḥ) slaughter or dismembers, (indraḥ)=Sun, (ava+jabhāra)=strikes, (anena)=it’s (putraḥ)=of the son, (nīcāvayāḥ)=attaing ignominious age, cloud, (adharaḥ)=located below, (āsīt)=is, (dānuḥ)=the land of all things, (sahavatsā)=present with her calf, ( dhenuḥ)=like a milking cow, (śaye)=sleeps, (tathā)=in the same way, (svaśatrūn)=with her enemies, [aura]=and, (pṛthivyā) =of the earth, (saha)=with, (śayānān) =the act of sleeping, (kuru)=do.
English Translation (K.K.V.)
O Commander! You are like the son of the cloud. The mother of the cloud has originated in the land or in the space above. The Sun strikes to kill or shatter the son of the mother of this cloud. The cloud having attained the worst age by its son is situated below. Let the land that gives all things sleep with its calf, as a cow that gives milk sleeps with its enemies and with the earth.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as figurative in this mantra. The cloud has two mothers, one is the earth and the other is space, from these two the clouds arise from the proximity. Just as a cow is present with its calf, in the same way, when a mass of water rises above the cloud, then a mother named space looks like she is sleeping with her son cloud. And when she comes to the ground by the rain, then the land looks like she is sleeping with her son cloud. The guardian of this cloud being its producer is the Sun. It’s definitely land and spaces are like two women. When he draws water and scatters it well through the air into the space, then that son attains cloud growth and becomes as magnified as intoxicated. The Sun kills him and makes him fall on the ground and this cloud is sometimes up and down, in the same way, the enemies of the people should be protected by the kings by removing the thorns here and there.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the 9th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in the Mantra. There are two mothers of Vritra (cloud) the earth and the firmament (Antariksha or middle region), because Vritra is born from them. As there is a cow with her calf, so when the cloud goes up, its Mother (Antariksha or middle region) appears to be sleeping with her son (Cloud).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नीचावयाः) नीचानि वयांसि यस्य मेघस्य सः = The cloud. (सू:) सूयते उत्पादयति सा माता = Mother. (उत्तरा) उपरिस्था अन्तरिक्षा = The firmament that is above. ( दानु:) ददाति या सा । अत्र दाभ्यां नुः (उणा० ३.३१) इति नुः प्रत्ययः । = Giver.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When through rain, the cloud comes down to the earth, then its mother (earth) seems to be sleeping with it. The sun is the father of the cloud, being its generator. The earth and the firmament are like two wives of the Sun. When the Sun draws the water and throws it through the air in the firmament, then his son cloud grows like a mad man. Then the sun smites it down and causes it to fall down on the earth. Thus the cloud sometimes goes up and again comes down on the earth. In' the same manner, the King and other officers of the state should throw away the thorns of the people (wicked people) hither and thither and should safe-guard the interests of their subjects. They should protect and preserve them well.
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