ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 13
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नास्मै॑ वि॒द्युन्न त॑न्य॒तुः सि॑षेध॒ न यां मिह॒मकि॑रद्ध्रा॒दुनिं॑ च । इन्द्र॑श्च॒ यद्यु॑यु॒धाते॒ अहि॑श्चो॒ताप॒रीभ्यो॑ म॒घवा॒ वि जि॑ग्ये ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्मै॒ । वि॒द्युत् । न । त॒न्य॒तुः । सि॒से॒ध॒ । न । याम् । मिह॑म् । अकि॑रत् । ह्रा॒दुनि॑म् । च॒ । इन्द्रः॑ । च॒ । यत् । यु॒यु॒धाते॒ इति॑ । अहिः॑ । च॒ । उ॒त । अ॒प॒रीभ्यः॑ । म॒घऽवा॑ । वि । जि॒ग्ये॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च । इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्मै । विद्युत् । न । तन्यतुः । सिसेध । न । याम् । मिहम् । अकिरत् । ह्रादुनिम् । च । इन्द्रः । च । यत् । युयुधाते इति । अहिः । च । उत । अपरीभ्यः । मघवा । वि । जिग्ये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(न) निषेधार्थे (अस्मै) इन्द्राय सूर्यलोकाय (विद्युत्) प्रयुक्ता स्तनयित्नुः (न) निषेधे (तन्यतुः) गर्जनसहिता (सिषेध) निवारयति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लङलिटौ। (न) निवारणे (याम्) वक्ष्यमाणाम् (मिहम्) मेहति सिंचति यया वृष्ट्या ताम्। (अकिरत्) किरति विक्षिपति। (ह्रादुनिम्) ह्रादतेऽव्यक्ताञ् शब्दान् करोति यया वृष्ट्याताम्। अत्र ह्रादधातोर्बाहुलकादौणादिक उनिः प्रत्ययः। (च) समुच्चये (इन्द्रः) सूर्यः (च) पुनरर्थे (यत्) यः। अत्रापि सुपांसु० इति सोर्लुक्। (युयुधाते) युध्येते (अहिः) मेघः (च) अन्योन्यार्थे (उत्) अपि (अपरीभ्यः) अपूर्णाभ्यः सेनाक्रियाभ्यः। अत्र पॄधातोः। अत्र इः। उ० ४।१४४। #अनेन इः प्रत्ययः। कृदिकारादक्तिनः। अ० ४।१।४५। अनेन* ङीष् प्रत्ययः। इदं पदं सायणाचार्येणाप्रमाणादपराभ्य इत्यशुद्धं व्याख्यातम्। (मघवा) मघं पूज्यं बहुविधं प्रकाशो धनं विद्यते यस्मिन् सः। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (वि) विशेषार्थे (जिग्ये) जयति ॥१३॥ # [‘१३९’ वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तावेषा संख्या वर्तते। सं०] *[ सूत्रस्थनियमेन। सं०]
अन्वयः
एतयोरस्मिन् युद्धे कस्य विजयो भवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सेनापते त्वं यथा येनाहिनास्मा इन्द्राय प्रत्युक्ता विद्युदेनं न सिषेध निवारयितुं न शक्नोति। तण्यतुर्गर्जनाप्यस्मै प्रयुक्ता न सिषेध निषेद्धं समर्था न भवति योऽद्विर्या ह्रादुनिं मिहं वृष्टिं चाकिरत् प्रक्षिपति साऽप्यस्मै न सिषेध। अयमिन्द्रः परीभ्यः पूर्णाभ्यः सेनाभ्यो युक्त उताप्यपरीभ्यः सेनाभ्यो युक्तोऽहिर्मेघश्च परस्परं युयुधाते। यद्यस्मादधिकबलयुक्तत्वान् मघवा तं मेघं विजिग्ये विजयते तथैव पूर्णं बलं संपाद्य शत्रून् विजयस्व ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा वृत्रस्य यावन्ति विद्युदादीनि युद्धसाधनानि सन्ति तावन्ति सूर्यापेक्षया क्षुद्राणि वर्त्तेंते सूर्यस्य खलु युद्धसाधनानि तदपेक्षया महान्ति सन्ति। अत एव सर्वदा सूर्यस्यविजयो वृत्रस्य पराजयश्च भवति तथैव धर्म्मेण शत्रुविजयः कार्य्यः ॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
इन दोनों के इस युद्ध में किस का विजय होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे सेनापते ! आप जैसे मेघ ने (अस्मै) इस सूर्य लोक के लिये छोड़ी हुई (विद्युत्) बिजुली (न) (सिषेध) इसकी कुछ रुकावट नहीं कर सकती (तन्यतुः) उस मेघ की गर्जना भी उस सूर्य को (न) (सिषेध) नहीं रोक सकती और वह (अहिः) मेघ (याम्) जिस (ह्रादुनिम्) गर्जना आदि गुणवाली (मिहम्) वरसा को (च) भी (अकिरत्) छोड़ता है वह भी सूर्य की (न) (सिषेध) हानि नहीं कर सकती है यह (इन्द्रः) सूर्यलोक अपनी किरणरूपी पूर्णसेना से युक्त (उत) और अपनी (अपरीभ्यः) अधूरी सेना से युक्त (अहिः) मेघ (च) भी ये दोनों (युयुधाते) परस्पर युद्ध किया करते हैं (यत्) अधिकबलयुक्त होने के कारण (मघवा) अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्यलोक उस मेघ को (च) भी (विजिग्ये) अच्छे प्रकार जीत लेता है वैसे ही धर्मयुक्त पूर्णबल करके शत्रुओं का विजय कीजिये ॥१३॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को योग्य है कि जैसे वृत्र अर्थात् मेघ के जितने बिजली आदि युद्ध के साधन हैं वे सब सूर्य के आगे क्षुद्र अर्थात् सब प्रकार निर्बल और थोड़े हैं और सूर्य के युद्धसाधन उसकी अपेक्षा से बड़े-२ हैं इसीसे सब समय में सूर्य ही का विजय और मेघ का पराजय होता रहता है वैसे ही धर्म से शत्रुओं को जीतें ॥१३॥
विषय
मघवा की विजय
पदार्थ
१. 'अहि' शब्द अध्यात्म में कामवासना का वाचक है, जो वासना मनुष्य का (आहनन) - सर्वतः विनाश करनेवाली है । यह 'अहि' आधिदैविक जगत् में मेघ का वाचक है । यह अहि नामक मेघ सूर्य के प्रकाश को उसी प्रकार आवृत करने का प्रयत्न करता है जैसेकि वासना मनुष्य के ज्ञान पर आवरण डाल देती है । 'इन्द्र' अध्यात्म में आत्मा है; यह इस वासना से निरन्तर युद्ध करता है । (यत्) - जब (इन्द्रः च अहिः च) - यह आत्मा और यह वासना (युयधाते) - युद्ध करते हैं तब (अस्मै) - इस इन्द्र के लिए (न विद्यत न तन्यतुः) - न तो इस अहि नामक मेघ की बिजली, न ही गर्जना (सिषेध) - रोकनेवाली होती है (न) - न ही (याम्) - जिस (मिहम्) - ओले आदि की वर्षा को (अकिरत्) - यह अहि विकीर्ण करता है (च) - और (ध्रादुनिम्) - अशनि - पतन के अव्यक्त शब्दों को करता है; ये वर्षा व वन - ध्वनियाँ भी इस इन्द्र को रोकनेवाली नहीं होती । (मघवा) - [मघ - मख] इस युद्धरूपी यज्ञ को करनेवाला इन्द्र अहि को तो मारता ही है (उत) - और (अपरीभ्यः) - इस अहि की अन्य फौजों से भी यह युद्ध में (विजिग्ये) - विजय प्राप्त करता है । काम के पराजय के साथ [क्रोध - लोभ - मोह - मद - मत्सर] आदि का भी पराजय हो जाता है ।
२. गलियों में नल के पानी आदि पर होनेवाली तामस् लड़ाइयों बिजली की कड़क व ओलों की बौछार से समाप्त हो जाती हैं । लड़नेवाले सब घरों को जाने की करते हैं । राजाओं के परस्पर युद्ध भी वर्षाऋतु में रुक जाते हैं, परन्तु यह अध्यात्म में चलनेवाला 'इन्द्र और अहि' का संग्राम अहि की गर्जना आदि से रुक नहीं जाता । रुकना तो दूर रहा, उस समय यह संग्राम कुछ तीव्रता से चलता है । इन्द्र को ये विद्युत् - पतन आदि भयभीत नहीं कर पाते । इन्द्र इस संग्राम में अधिक यत्नशील होकर विजयी होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम इन्द्र बनें । वासनारूप 'अहि' का विनाश करनेवाले हों ।
विषय
इन दोनों के इस युद्ध में किस का विजय होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सेनापते त्वं यथा येन अहिना अस्मै इन्द्राय प्रत्युक्ता विद्युत् एनम् न सिषेध निवारयितुं न शक्नोति। तण्यतुः गर्जनाः अपि अस्मै प्रयुक्ता न सिषेध निषेद्धं समर्था न भवति यः अहिः या ह्रादुनिं मिहं वृष्टिं च अकिरत् प्रक्षिपति सा अपि अस्मै युक्त उत अपि अपरीभ्यः सेनाभ्यः युक्तः अहिः मेघः च परस्परम् युयुधाते। यद् अस्मात् अधिकबलयुक्तत्वान् मघवा तं मेघं विजिग्ये विजयते तथैव पूर्णं बलं संपाद्य शत्रून् विजयस्व ॥१३॥
पदार्थ
हे (सेनापते)=सेनापते ! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे (येन)=जिसके द्वारा, (अहिना)=मेघ ने, (अस्मै)=इस, (इन्द्राय)=सूर्य लोक के लिये, (प्रत्युक्ता)=प्रत्युक्त की गयी, (विद्युत्) प्रयुक्ता स्तनयित्नुः=गड़गड़ाहट के साथ प्रत्युक्त बिजली, (एनम्)=इसकी, (सिषेध)=कुछ रुकावट, (न) निषेधार्थे=नहीं, (शक्नोति)=कर सकती है। (तन्यतुः) गर्जनसहिता=गर्जन सहित, (अस्मै) इन्द्राय सूर्यलोकाय=सूर्य लोक के लिये, (प्रयुक्ता)=प्रयुक्त (भवति)=होती है। (यः)=जो, (अहिः)=मेघ, (या)=जिस, (ह्रादुनिम्) ह्रादतेऽव्यक्ताञ् शब्दान् करोति यया वृष्ट्याताम्=गर्जना आदि शब्द करती वृष्टि का, (मिहम्) मेहति सिंचति यया वृष्ट्या ताम्=जो वर्षा सिंचन करती है, उस, (वृष्टिम्)=वृष्टि को, (च)= भी (अकिरत्) किरति विक्षिपति=छोड़ता है, (सा)=वह वृष्टि, (अपि)=भी, (अस्मै)=सूर्य लोक से, (युक्त)=युक्त, (उत्) अपि=भी, (अपरीभ्यः) अपूर्णाभ्यः सेनाक्रियाभ्यः=अधूरी सेना की क्रिया से युक्त, (अहिः) मेघः=मेघ, (च) भी, (परस्परम्)=परस्पर, (युयुधाते) युध्येते=युद्ध किया करते हैं, (यत्) यः=जो, (अस्मात्)=इसमें, (अधिकबलयुक्तत्वान्)=अधिक बलयुक्त होने के कारण, (मघवा) मघं पूज्यं बहुविधं प्रकाशो धनं विद्यते यस्मिन् सः=अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्यलोक, (तम्)=उस, (मेघम्)=मेघ को, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (जिग्ये) जयति=जीतता है। (तथैव)=उसी प्रकार से, (पूर्णं)=पूरे, (बलम्)=बल का, (संपाद्य)=सम्पादन करो और (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (शत्रून्)=शत्रुओं पर, (जयस्व)=विजय प्राप्त करो ॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुष जैसे मेघ जिसका परिरक्षण करने के लिए विद्युत् आदि साधन हैं, उनकी रक्षा करते हैं। ये सूर्य की अपेक्षा से छोटे होते हैं। सूर्य के निश्चित ही युद्ध के साधन उसकी अपेक्षा से बड़े हैं। इसलिए सर्वदा में सूर्य का विजय और मेघ का पराजय होता है, वैसे ही धर्म से शत्रुओं पर विजय का कार्य करें ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सेनापते) सेनापते ! (त्वम्) आप (यथा) जैसे, (येन) जिसके द्वारा (अहिना) मेघ ने (अस्मै) इस (इन्द्राय) सूर्य लोक के लिये (प्रत्युक्ता) प्रत्युक्त की गयी (विद्युत्) गड़गड़ाहट के साथ बिजली, (एनम्) इसकी (सिषेध) कुछ रुकावट (न) नहीं (शक्नोति) कर सकती है। (तन्यतुः) गर्जन सहित (अस्मै) सूर्य लोक के लिये (प्रयुक्ता) प्रयुक्त (भवति) होती है। (यः) जो (अहिः) मेघ (या) जिस (ह्रादुनिम्) गर्जना आदि शब्द करती वृष्टि का (मिहम्) जो वर्षा सिंचन करती है, उस (वृष्टिम्) वृष्टि को (च) भी (अकिरत्) छोड़ता है। (सा) वह वृष्टि (अपि) भी (अस्मै) सूर्य लोक से (युक्त) युक्त (उत्) भी (अपरीभ्यः) अधूरी सेना की क्रियावाले (अहिः) मेघ (च) भी (परस्परम्) परस्पर (युयुधाते) युद्ध किया करते हैं। (यत्) जो (अस्मात्) इसमें (अधिकबलयुक्तत्वान्) अधिक बलयुक्त होने के कारण (मघवा) अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्यलोक है, (तम्) उस (मेघम्) मेघ को (वि) विशेष रूप से (जिग्ये) जीतता है। (तथैव) उसी प्रकार से (पूर्णं) पूरे (बलम्) बल का (संपाद्य) सम्पादन करो और (वि) विशेष रूप से (शत्रून्) शत्रुओं पर (जयस्व) विजय प्राप्त करो ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (न) निषेधार्थे (अस्मै) इन्द्राय सूर्यलोकाय (विद्युत्) प्रयुक्ता स्तनयित्नुः (न) निषेधे (तन्यतुः) गर्जनसहिता (सिषेध) निवारयति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लङलिटौ। (न) निवारणे (याम्) वक्ष्यमाणाम् (मिहम्) मेहति सिंचति यया वृष्ट्या ताम्। (अकिरत्) किरति विक्षिपति। (ह्रादुनिम्) ह्रादतेऽव्यक्ताञ् शब्दान् करोति यया वृष्ट्याताम्। अत्र ह्रादधातोर्बाहुलकादौणादिक उनिः प्रत्ययः। (च) समुच्चये (इन्द्रः) सूर्यः (च) पुनरर्थे (यत्) यः। अत्रापि सुपांसु० इति सोर्लुक्। (युयुधाते) युध्येते (अहिः) मेघः (च) अन्योन्यार्थे (उत्) अपि (अपरीभ्यः) अपूर्णाभ्यः सेनाक्रियाभ्यः। अत्र पॄधातोः। अत्र इः। उ० ४।१४४। #अनेन इः प्रत्ययः। कृदिकारादक्तिनः। अ० ४।१।४५। अनेन* ङीष् प्रत्ययः। इदं पदं सायणाचार्येणाप्रमाणादपराभ्य इत्यशुद्धं व्याख्यातम्। (मघवा) मघं पूज्यं बहुविधं प्रकाशो धनं विद्यते यस्मिन् सः। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (वि) विशेषार्थे (जिग्ये) जयति ॥१३॥ # ['१३९' वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तावेषा संख्या वर्तते। सं०] *[ सूत्रस्थनियमेन। सं०]
विषयः- एतयोरस्मिन् युद्धे कस्य विजयो भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे सेनापते त्वं यथा येनाहिनास्मा इन्द्राय प्रत्युक्ता विद्युदेनं न सिषेध निवारयितुं न शक्नोति। तण्यतुर्गर्जनाप्यस्मै प्रयुक्ता न सिषेध निषेद्धं समर्था न भवति योऽहिर्या ह्रादुनिं मिहं वृष्टिं चाकिरत् प्रक्षिपति साऽप्यस्मै न सिषेध। अयमिन्द्रः परीभ्यः पूर्णाभ्यः सेनाभ्यो युक्त उताप्यपरीभ्यः सेनाभ्यो युक्तोऽहिर्मेघश्च परस्परं युयुधाते। यद्यस्मादधिकबलयुक्तत्वान् मघवा तं मेघं विजिग्ये विजयते तथैव पूर्णं बलं संपाद्य शत्रून् विजयस्व ॥१३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा वृत्रस्य यावन्ति विद्युदादीनि युद्धसाधनानि सन्ति तावन्ति सूर्यापेक्षया क्षुद्राणि वर्त्तेंते सूर्यस्य खलु युद्धसाधनानि तदपेक्षया महान्ति सन्ति। अत एव सर्वदा सूर्यस्यविजयो वृत्रस्य पराजयश्च भवति तथैव धर्म्मेण शत्रुविजयः कार्य्यः ॥१३॥
विषय
वृत्रहनन का रहस्य ।
भावार्थ
(यत्) जब (इन्द्रः च) सूर्य और (अहिः च) मेघ दोनों (युयुधाते) युद्ध करते हैं। तब (अस्मै) इस सूर्य तक (न विद्युत्) न बिजली और (न तन्यतुः) न गर्जना ही (सिषेध) पहुंचती है। (याम् मिहम्) जिस जल वृष्टि और (हादुनिं च) अव्यक्त शब्द करने वाली विद्युत् को भी मेघ (अकिरत्) चारों ओर फेंकता है वह भी सूर्य तक नहीं पहुंचती। (उस) और (अपरीभ्यः) इन सब अपूर्ण, अस्थायी चेष्टाओं पर (मघवा) प्रकाशमान सूर्य (विजिग्ये) विशेष रूप से जय पाता है । इसी प्रकार (यत्) जब (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रबल राजा और (अहिः च) आक्रमणकारी शत्रु दोनों (युयुधाते) परस्पर युद्ध करते हैं तब (याम्) जिस (मिहम्) जलवृष्टि के समान फेंकी शरवृष्टि को और (हादुनिं च) घोर गर्जना करनेवाले महास्त्र शतघ्नी को भी (अकिरत्) वह फेंकता है तब (न विद्युत्) न वह बिजली के शस्त्र और (न तन्यतुः) न वह गर्जनाकारी शस्त्रास्त्र (अस्मै सिषेध) उस तक पहुंचते हैं। (उत) बल्कि (मघवा) विविध ऐश्वर्यों का स्वामी वह (अपरीभ्यः) उन बल और शक्ति से युक्त शत्रु सेनाओं को (वि जिग्ये) विशेष रूप से जीत लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वृत्र अर्थात मेघ याची विद्युत इत्यादी जितकी युद्धाची साधने आहेत ती सर्व सूर्यासमोर क्षुद्र सर्व प्रकारे निर्बल व कमी आहेत. सूर्याची युद्धसाधने त्यापेक्षा मोठमोठी आहेत. त्यामुळे नेहमी सूर्याचा विजय होतो व मेघाचा पराजय होतो. राजपुरुषांनी तसेच धर्माने शत्रूंना जिंकावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Neither lightning nor thunder, nor storm and shower, nor the roar and rumble which Vrtra produces does resist and stop Indra. When Indra and Vrtra both battle—Vrtra with inadequate forces—then Indra, powerful and glorious, comes out victorious.
Subject of the mantra
Who wins in this war between these two, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (senāpate)=Commander, (tvam)=you, (yathā)=as, (yena)=by whom, (ahinā)=the cloud, (asmai)=this, (indrāya)=for the Sun world, (pratyuktā)=used, (vidyut)=thunder with lightning, (enam)=it’s (siṣedha)=some blockage, (na)=not,(śaknoti)=can do, (tanyatuḥ)=with thunder, (asmai)=for the Sun world, (prayuktā)=used,(bhavati)=it occurs, (yaḥ)=that, (ahiḥ)=cloud, (yā)=which, (hrādunim)=of the roaring rain, (miham) The one who irrigates the rain, [usa]=that, (vṛṣṭim)=to rain,(ca)=also, (akirat)=drops, (sā)=that rain, (api)=also, (asmai)=from the Sun world, (yukta)=attached, (ut)=also,(aparībhyaḥ)=of unarmored action, (ahiḥ)=cloud, (ca)=as well, (parasparam)=with each other,(yuyudhāte)=do war, (yat)=those,(asmāt)=in this, (adhikabalayuktatvān)=being more powerful, (maghavā)=very bright sun, (tam)=that, (megham)=to cloud, (vi)=specially, (jigye)=wins over, (tathaiva)=in the same way, (pūrṇaṃ)=complete, (balam)=of power, (saṃpādya)=execute, [aura]=and, (vi)=specially, (śatrūn)=against enemies, (jayasva)=get the victory.
English Translation (K.K.V.)
O Commander! Lightning, like you, through whom the cloud has applied to this Sun world, with thunder, cannot stop it. The Sun with thunder is used for the world. The cloud which irrigates the rain, that roars and also drops that rain. Even those clouds with the action of the unfinished army, even with those of the Sun, fight with each other as well. Which, being more powerful in it, is a very bright Sun-world. That cloud in particular wins. In the same way, perform with full force and especially get victory over the enemies.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. A royal person like a cloud, who has the means of protection, electricity etc., protect them. These are smaller than the Sun. Surely the means of war of the Sun are bigger as expected. That is why, the Sun always wins and the clouds are defeated, in the same way, be victorious over the enemies with righteousness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In this battle of Indra and Vritra, who gets victory is taught in the 13th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Killed by the sun, the cloud falls down on the earth and by its waters are filled many rivers. As a pigeon frightened by the hawk, the cloud struck by the Sun, lays prostrate on the earth trans versing ninety-nine or indefinite number of streams like a hawk. Because the sun is great and mighty on account of his light, attraction and piercing powers, therefore he is superior to all other worlds. He surpasses them all. Therefore O hero, thou shouldst also be mighty and splendid like the sun and kill all enemies whom thou seest or imaginest in Thy heart. Fear should never enter thy heart. When fear enters the heart of even a mighty person, he flees away to distant places.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[इन्द्र] शत्रुदलविदारक योद्धः = O warior destroyer of your enemies. [स्रवन्ती:] गमनं कुर्वन्तीर्नदी: नाडीर्वा स्रवन्त्य इति नदीनामसु पठितम् [निघ० १.१३] सृधातोर्गत्यर्थत्वाद् रुधिर प्राणा गमनमार्गा जीवनहेतवः नाड्यः अपि गृह्यन्ते । = Flowing rivers or nerves which cause the movement of the blood or prana. [रजांसि] = All worlds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. The heroes of a state should get victory over their enemies. As a frightened or alarmed hawk when attacked by some one, goes hither and thither, in the same manner, the cloud destroyed by the sun falls down here and there. By its waters which are like its body, it fills up many streams in the world. There is no cause for the existence of the cloud except the Sun. As fear enters the heart of some weak beings in dark, in the same way, the lightning and thunder of the cloud cause fear and their remover or dispeller also is the Sun. He (sun) is the cause of the dealings of all worlds on account of his light and attraction etc. Bearing all this in mind, heroes should behave like the Sun.
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